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________________ आत्मबोध २१ आया है? कहाँ जाता है? उसका उद्भवस्थान क्या है? कैसे विलय हो सकता है? ये क्रोध-मान-माया-लोभ है, वो गुरू-लघु स्वभाव के हैं और आत्मा अगुरू- लघु स्वभाव का है। ईगोइज्म गुरू-लघु स्वभाववाला है, राग-द्वेष गुरू-लघु स्वभाववाले हैं, क्रोध-मान-माया-लोभ गुरू- लघु स्वभाववाले हैं और आत्मा अगुरूलघु स्वभावी है । दरअसल चेतन में क्रोध-मान-माया - लोभ कुछ भी नहीं है, वो परमानंद स्थिति है। वो ही आत्मा है, वो ही परमात्मा है। लेकिन ये रोंग बिलीफ से 'मैं ये हूँ, मैं रवीन्द्र हूँ' ऐसा मानता है, वो ही मिश्रचेतन है और मिश्रचेतन को ही जगत के लोग चेतन मानते हैं। जड़ और चेतन का संयोग हुआ कि विशेष परिणाम उत्पन्न होता है। अभी आपको ज्ञान मिल गया कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ', तो आपको खयाल आ जायेगा कि संयोग ही दुःखदायी है। तो आप संयोग से दूर हट जायेंगे तो संयोग भी हट जायेगा। संयोग हट गये फिर अज्ञान होता ही नहीं । संयोग से दूर हुआ फिर विशेष परिणाम भी नहीं होता। जैसे आपने सागर किनारे से आधा माइल दूर नये लोहे की दो लोरी रख दी। फिर बारह महिने के बाद देखेंगे तो लोहे को कुछ हो जायेगा? क्या हो जायेगा ? प्रश्नकर्ता: जंग लग जायेगा। दादाश्री : वो किसने किया? लोहे ने खुद ने किया ? प्रश्नकर्ता: नहीं। दादाश्री : तो किसने किया? प्रश्नकर्ता: दोनों के मिश्रण से । दादाश्री : वो दोनों का संयोग हो गया, तो संयोग से जंग उत्पन्न होता है। वैसे ये क्रोध - मान-माया-लोभ हैं, वो जड़ और चेतन के संयोग से उत्पन्न होते हैं। 'मैं खुद रवीन्द्र हूँ' ऐसा मानते हैं, इससे क्रोध-मानमाया-लोभ उत्पन्न होते है। जिधर आप खुद नहीं हैं, उधर आप बोलते आत्मबोध हैं कि 'मैं रवीन्द्र हूँ' और जिधर आप है, उसकी आपको समझ नहीं है। ‘मैं रवीन्द्र हूँ' यह आरोपित भाव है, यह सच्चा भाव नहीं है। यह आरोप करते है, तो 'रवीन्द्र' की सब जिम्मेदारी 'आप'को ले लेनी पड़ती है और आरोप करने से ही कर्म बंधते हैं। फिर उसका कर्मफल भुगतना पड़ता है। हम आरोपित भाव नहीं करते हैं। 'मैं अंबालाल हूँ' ऐसा ड्रामेटिक बोलते हैं। और आप 'मैं रवीन्द्र हूँ' ऐसा सच्चा बोलते हैं। जिसको ज्ञान मिलता है, उसको कर्म नहीं लगता, क्योंकि आरोपित भाव चला जाता है। आरोपित भाव को ही ईगोइज्म बोलते हैं। अपने खुद में 'मैं हूँ' बोले तो कोई हर्ज नहीं, क्योंकि खुद है ही। जिसका अस्तित्व है, वो बोल सकता है कि, 'मैं हूँ।' लेकिन खुद नहीं है, वह बोलना आरोपित भाव है। २२ अस्तित्व तो बकरी को भी रहता है। बकरी बोलती है न, 'मैं मैं' और सब लोग भी बोलते है, 'मैं हूँ, मैं हूँ।' तो अस्तित्व तो है, इसलिए ही बोलते हैं कि 'मैं रवीन्द्र हूँ'। तो ये प्रूव हो जाता है कि अस्तित्व तो है और जिधर शरीर निश्चेतन हो गया तो फिर 'मैं हूँ' कुछ नहीं बोलता, तो उधर अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व है तो वस्तुत्व होना चाहिए लेकिन वस्तुत्व का खयाल नहीं आता कि 'मैं कौन हूँ'। इसलिए 'मैं रवीन्द्र हूँ' बोलते है। 'मैं इसका फादर हूँ' बोलते हैं। 'ये हूँ, वो हूँ' बोलते हैं, इसीलिए तो सच्ची बात क्या है, वो वस्तु समझ में नहीं आती है। वस्तुत्व का भान कराना, वो तो 'ज्ञानी पुरुष' का काम है। आप वस्तुत्व में क्या है, वो आपको मालुम नहीं। आप वस्तुत्व में क्या है, वो हमें मालूम है। हम वो देख भी सकता है कि आप कौन हैं ! प्रश्नकर्ता: मैं नहीं देख सकता। दादाश्री : आपको तो ये चर्मचक्षु हैं न? हम दिव्यचक्षु देते हैं फिर आप भी देख सकते हो। अस्तित्व का भान सब जीव को है। 'मैं हूँ, मैं हूँ' ऐसा अस्तित्व का भान सबको है। ‘मैं हूँ, मैं हूँ', ऐसा बकरी भी मानती है, कुत्ता भी
SR No.009577
Book TitleAtmabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Foundation
Publication Year2003
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size91 KB
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