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________________ (१६) 'रिलेटिव' धर्म : विज्ञान १३७ १३८ आप्तवाणी-४ ज्ञानी पुरुष ज्ञानघन आत्मा दे सकते हैं, जो धर्माधर्म से निकाल लेता है। धर्माधर्म आत्मा है, तब तक भटकन है। धर्म का फल भौतिक सुख और अधर्म का फल भौतिक दुःख हैं। धर्म से संसार प्राप्त होता है। 'थियरी ऑफ रियालिटि' में आया, तब ज्ञानधन आत्मा प्राप्त होता है। उसके बाद क्या रहा? 'थियरी ऑफ एब्सोल्यूटिज़म!' वह विज्ञानघन आत्मा है। विज्ञानघन आत्मा ज्ञान अर्थात् आत्मा और विज्ञान अर्थात् परमात्मा। यह तो साइन्स है। आत्मा-परमात्मा का साइन्स अर्थात् सिद्धांत ! उसमें किसी जगह पर अंश मात्र चेन्ज नहीं होता और ठेठ आरपार ले जाता है। ज्ञानघन आत्मा में आने के बाद, अविनाशी पद को प्राप्त करने के बाद विज्ञानधन को जानना चाहिए। विज्ञानधन अर्थात् सभी में 'मैं ही हँ', ऐसा दिखे वह विज्ञानधन आत्मा कहलाता है - बंधा हुआ है, फिर भी मुक्त रहे! 'ज्ञानी पुरुष' विज्ञानघन आत्मा होते है ! 'थियरी ऑफ एब्सोल्यूटिज़म' में ही नहीं परन्तु खुद थीयरम ऑफ एब्सोल्यूटिज़म में होते हैं। पूरे वर्ल्ड का पुण्य जागा कि यह अक्रम विज्ञान निकला, विज्ञानघन आत्मा निकला!! पूरा वर्ल्ड सायन्स के रूप में है, फिर भी आज लोग साइन्स को जानते नहीं हैं, इसलिए धर्म के पीछे दौड़ते रहते हैं। परन्तु यदि साइन्स जान ले कि इतनी वस्तु है और यह किस तरह चलती है, तो वह मुक्त हो जाए। यही अत्यंत गहन पहेली है। गच्छ-मत, वहाँ 'रिलेटिव' धर्म जैन धर्म, वैष्णव धर्म, मुस्लिम धर्म, पारसी धर्म, ईसाई धर्म वगैरह सब 'रिलेटिव' धर्म कहलाते हैं। इन धर्मों को और 'इस' का कुछ लेनादेना नहीं है। यह 'रियल' वस्तु है। 'रिलेटिव' धर्म अर्थात् स्टेप बाय स्टेप आगे बढ़ाता है। उसमें भी 'रिलेटिव' धर्म सच्चे नहीं हैं। जहाँ गच्छ (सम्प्रदाय का एक वर्ग)-मत हों, वहाँ एक भी धर्म सच्चा नहीं होता। गच्छ और मत हो, वहाँ मोक्ष का मार्ग ही नहीं होता। मोक्षमार्ग होता ही नहीं। पक्ष और मोक्ष दोनों विरोधाभासी हैं। जहाँ गच्छ-मत है, वहाँ संसारी से भी अधिक बंधन है। मोक्ष तो वीतराग धर्म से है। संप्रदाय अर्थात् एकांतिक कहलाता है। वीतराग धर्म एकांतिक नहीं होता, अनेकांतिक होता है। वीतराग, संप्रदाय से बाहर होता है। वीतराग धर्म अर्थात् मतभेद रहित। अपना अनेकांत मार्ग है। यहाँ पारसी हैं, जैन हैं, मुस्लिम हैं, वैष्णव हैं। यहाँ सभी को माफ़िक आए, वैसी बातें होती है। यहाँ स्यादवाद वाणी है। एकांतिक धर्म हो वहाँ एक ही प्रकार के लोग, एक मतवाले ही सब लोग आते हैं, दूसरा कोई नहीं जाता। वीतराग वाणी से सब दु:खों का क्षय होता हैं। मत और गच्छ हैं, तब तक मोक्षमार्ग तो क्या पर धर्म भी प्राप्त नहीं किया, ऐसा कहा जाएगा। प्राप्त कर लिया' नहीं कहा जाएगा! प्रश्नकर्ता : 'प्राप्त कर लिया' कब कहा जाएगा? दादाश्री : क्लेश जाए, चिंता जाए, तब 'प्राप्त कर लिया' कहा जाएगा। जिसमें गालियाँ दे तो भी क्लेश-चिंता नहीं हो. धौल मारे तो भी क्लेश नहीं हो, अभी गाड़ी में बिठाएँ तो भी क्लेश नहीं हो और गाड़ी में से तुरन्त उतार दें तो भी क्लेश नहीं हो, तो उसे 'प्राप्त कर लिया' कहा जाएगा! नहीं तो 'प्राप्त कर लिया' कहलाएगा ही कैसे? धर्मसार अर्थात्..... दुनिया में दो प्रकार के सार हैं : धर्मसार और समयसार। धर्म किसे कहते हैं? धर्मसार प्राप्त हुआ तो धर्म हुआ कहा जाता है। धर्मसार किसे कहते हैं? आर्तध्यान और रौद्रध्यान नहीं हों, उसे। सभी खाए, पीए, घूमे, फिरे, व्यापार करे, परन्तु रौद्रध्यान और आर्तध्यान नहीं हों, उसे धर्मसार कहा है और मर्म का सार अर्थात् मुक्ति। यह धर्म का जो मर्म है, उसका सार निकला, वही मुक्ति कहलाती है। धर्म के सार से मुक्ति नहीं होती, परन्तु धर्मसार में से मर्म उत्पन्न होगा। और मर्म सार से मुक्ति होगी। सभी धर्मों का सार क्या हैं? आर्तध्यान और रौद्रध्यान गया? नहीं गया तो तू धर्म में नहीं है। कम हुआ? तो कहते हैं, 'हाँ।' कम हुआ हो वैसे लोगों को चलो मान लें कि यह धर्म में है। लेकिन जिन्हें कम नहीं हुआ, खूब होता है, वे धर्म में हैं ऐसा स्वीकार नहीं होता।
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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