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________________ (१४) सच्ची समझ, धर्म की १२० आप्तवाणी-४ देखें कि जूते गायब हो गए। तो समझना कि किसी और के हो गए और रह गए तो पहन लेना। दोनों मत बिगाड़ना। पचास-सौ रुपये के लिए क्या भगवान के साथ बिगाड़ेंगे? प्रश्नकर्ता : पर यह तो हररोज़ का है न? दादाश्री : हररोज़ गायब नहीं जाते हैं। यह तो उसे डर है। प्रश्नकर्ता : जाएँ वैसा है! दादाश्री : बहुत सोचे न, उसीके जाते हैं। मेरे जैसे विचार नहीं करते, उनके जूते यों ही पड़े रहते हैं ! जाते ही नहीं, नियम है, धर्म रक्षण करता प्रश्नकर्ता: श्रद्धा रखे तो धर्म रक्षण करता है? बढ़ता गया। थोड़ा भी कोई छेड़े-करे कि, 'चंदूलाल में अक्कल नहीं है।' तो उससे पहले ही धमाका हो जाता है। सामायिक करते हुए या माला फेरते समय भी कोई छेड़े तो भी धमाका हो जाता है। हो जाता है या नहीं? प्रश्नकर्ता : हो जाता है। दादाश्री: ऐसा क्यों हो गया होगा सेठ? समता नहीं रहती है न?! वर्ना उपाधि में समता रहे, तब समझना कि मोक्ष के बिगुल बजे। प्रश्नकर्ता : वह समता किस तरह रहे? दादाश्री : क्यों किस तरह रहे? देखो, इन भाई को समता रहती है या नहीं रहती? उन्हें पूछो तो सही? उपाधि में समता रहनी ही चाहिए, नहीं तो धर्म ही कैसे कहलाएगा? अभी तक किया वह खरा धर्म ही नहीं कहलाता। धर्म तो वह कि अपमान करे, जेब कट जाए, तो भी हाजिर रहे। यह धर्म तो आपकी सहायता नहीं करता है न? प्रश्नकर्ता : नहीं करता। दादाश्री : यानी कि आप धर्म के प्रति सिन्सियर नहीं रहे। इस कलियुग में धर्म के प्रति कोई भी सिन्सियर नहीं रहता। भाई के प्रति सिन्सियर नहीं रहता, पत्नी के प्रति भी सिन्सियर नहीं रहता, तब फिर धर्म के प्रति सिन्सियर किस तरह रहे? लोग रोज़ चाँदी की डिब्बी लेकर भगवान के दर्शन करने जाते हैं। तब मैंने भगवान से कहा कि, 'भगवान ! इतने सारे लोग रोज दर्शन करते हैं, फिर भी आप उन पर राज़ी क्यों नहीं होते?' तब भगवान ने कहा कि, 'ये लोग रोज़ आकर दर्शन तो करते हैं, पर फिर उस घड़ी उनके जूतों को भी याद करते रहते हैं कि कोई ले जाएगा, ले जाएगा, अरे दुकान को भी साथ में याद करते रहते हैं। अब बोलो, इसमें मेरा क्या दोष है? मैं उन पर किस तरह राजी होऊँ?' तब लोग मुझे पूछते हैं कि, 'तो हमें दर्शन किस तरह करने चाहिए?' तब मैं उन्हें समझाता हूँ कि, 'दर्शन करते समय आपको जूतों से ऐसा कहना चाहिए कि, 'दादा भगवान' की आज्ञा से तुझे कहता हूँ कि त जल्दी से जल्दी जाना और नहीं जाना हो तो रुकना', ऐसे करके दर्शन करना। दर्शन करके आएँ और दादाश्री : श्रद्धा किस तरह रहे? जहाँ दानत ही खोटी हो, वहाँ पर श्रद्धा किस तरह रहे? दानत साफ़ चाहिए, क्षत्रियों के जैसी। भगवान क्षत्रिय थे न। साफ़ दानतवाले तो जूतों से कहते हैं कि, 'तुझे जाना हो तो जाना, मैं तो भगवान के दर्शन करने जा रहा हूँ।' और आपको तो यह चाहिए और वह भी चाहिए! जन्म से पहले और मरने के बाद... 'जन्म पहेला चालतो ने मूआ पछी चालशे अटके ना कोई दि' व्यवहार रे, सापेक्ष संसार रे...' - नवनीत। क्या करना बाकी रहा है अब आपको? जन्म से पहले भी (संसार) चलता था और मरने के बाद भी चलेगा। यह तो बिना बात के रुक गए हो कि मुझे चलाना है! ऐसा है न, कि यह चलता रहता है और चलता रहेगा। आप अपने खाओ-पीओ और सो जाओ। आराम से ज़रा ज़ह तक घूम आओ। इस तरह हाय-हाय किसलिए करते रहते हो? यह तो पूरा दिन काम-काम, हाय-हाय करते रहते हैं, जैसे कि कभी भी चिता में जाना
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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