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________________ (१३) व्यवहारधर्म : स्वाभाविकधर्म ११५ फ्री ऑफ कोस्ट नहीं आता है, वह तो लेकर वापिस चुकाना पड़ता है। उधार लेकर कितने दिन तक सुखी होंगे? उधार के रुपये कब लिए जाते हैं? जब नाक कटे तब। यह तो जहाँ-तहाँ से उधार लिया है, वह अब वापिस देना पड़ रहा है। जब वापिस दें, तब वह दु:ख के रूप में देना पड़ता है। शारीरिक, मानसिक या वाचिक चाहे जिस प्रकार से देना पड़ेगा। बेटा'पापाजी-पापाजी' करे तो वह कडवा लगना चाहिए। यदि मीठा लगा तो उसे उधार का सुख लिया कहा जाएगा, वह फिर दु:ख के रूप में वापिस देना पड़ेगा। बेटा बड़ा होगा तब आपसे कहेगा कि, 'आप बेअक्कल हो।' तब होगा कि ऐसा क्यों? वह जो पहले आपने उधार लिया था, वह वापिस ले रहा है। इसलिए पहले से ही सावधान हो जाओ। हमने तो उधारी सुख लेने का व्यवहार ही छोड़ दिया था। अहा, खुद के आत्मा में अनंत सुख है! उसे छोड़कर इस भयंकर गंदगी में पड़ें? घरवाले या बाहरवाले कड़वा बोले तो सहन नहीं होता, इसलिए हमने कहा है कि वाणी रिकॉर्ड है। इस काल में रिकॉर्ड टेढ़ी बजती है। सामनेवाले की चाहे जितनी, चाहे जैसी रिकॉर्ड बज रही हो, पर हम रिकॉर्ड के रूप में सुनते रहें और सामनेवाला ऊब जाए, तब समझें कि वास्तव में ज्ञान पचा है। कषाय कभी भी कषाय से जीते नहीं जा सकते, कषाय समता से ही जीते जा सकते हैं। खाने की या दूसरी किसी चीज़ की भावना ही नहीं होनी चाहिए। पौद्गलिक सुख की तमन्ना, अरे उसका विचार ही नहीं आना चाहिए। क्योंकि वह उधारी व्यवहार पुसाए वैसा नहीं है। वह वापिस माँगें तब दिया नहीं जा सकेगा। पुद्गल खुद वीतराग है। आप उसे जब से लाओगे, तब से उधारी व्यवहार शुरू हो जाता है। (१४) सच्ची समझ, धर्म की धर्म का स्थान प्रश्नकर्ता : धर्म किस स्थल पर है? दादाश्री: धर्म दो प्रकार के हैं। एक लौकिक धर्म और दूसरा अलौकिक धर्म। लौकिक धर्म संसारिक सुख देते हैं। मिथ्यात्व सहित जोजो क्रियाएँ की जाती हैं, वे सभी लौकिक धर्म कहलाते हैं। उसका फल संसार है। उससे भौतिक सुख मिलते हैं, पर मोक्ष नहीं मिलता। जब कि अलौकिक धर्म में आए, यानी कि मिथ्यादर्शन टूटे, तब से मोक्ष का रास्ता मिल गया कहा जाता है। मिथ्यादर्शन टूटे किस तरह? 'ज्ञानी पुरुष' उसे ज्ञान में समझाएँ कि ये सब 'रोंग बिलीफें ' हैं और वे 'रोंग बिलीफ़' फ्रेक्चर कर देते हैं और 'राइट बिलीफ़' उसकी मान्यता में हमेशा के लिए बैठ जाती है, वैसी उनकी कृपा उतरे तब सम्यक् दर्शन होता है, और सम्यक दर्शन हुआ, उसके साथ ही सम्यक् ज्ञान होता ही रहता है और सम्यक चारित्र भी आता ही रहता है। धर्म : त्याग में या भोग में प्रश्नकर्ता : धर्म वह त्याग में है या भोग में है? दादाश्री : धर्म त्याग में भी नहीं होता है और भोग में भी नहीं होता है, दोनों विपरीत मान्यताएँ हैं। त्यागवाला वापिस ग्रहण करता है। अपने में कहावत है न, कि 'त्यागे सो आगे?' इसलिए जितना त्याग करोगे उसका अनेक गुना होकर वापिस आएगा और ग्रहण किया तो उसे वापिस ग्रहण की अड़चनें आएँगी, तब फिर उसे वापिस त्याग करने की भावना
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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