SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१३) व्यवहारधर्म : स्वाभाविकधर्म १०९ ११० आप्तवाणी-४ रहे ऐसी कौन-सी चीज़ है? दादाश्री : हमारे पास स्वरूप का ज्ञान ले जाए तो उसे सबकुछ सुखवाला ही होता है। और जिसके अंतराय हों और ज्ञान नहीं लेना हो तो वे हमें सब पूछ लें और समझ लें कि 'यह संसार किस तरह चलता है, यह सब क्या है?' तब भी उसे सुख रहे। समाधान रहे, वही धर्म है। कुछ अंशों तक समाधान और कछ अंशों तक असमाधान रहे, वह 'रिलेटिव' धर्म है, वह पहली सीढ़ी है। फिर 'रियल' धर्म में आता है, जिसमें हर एक संयोग में समाधान रहना चाहिए। समाधान हो तो ही शांति रहेगी न? जीव-मात्र क्या ढूंढता है? आनंद ढंढता है, परन्तु क्षणभर भी आनंद नहीं मिलता। शादी में जाए या नाटक में जाए, पर वापिस फिर दु:ख आता है। जिस सुख के बाद दुःख आए, उसे सुख कहेंगे ही कैसे? वह तो मर्जी का आनंद कहलाता है। सुख तो परमानेन्ट होता है। यह तो टेम्परेरी सुख हैं और फिर कल्पित हैं, माना हुआ है। हर एक आत्मा क्या ढूंढता है? हमेशा के लिए सुख, शाश्वत सुख ढूंढता है। वह 'इसमें से आएगा, इसमें से आएगा, यह ले लूँ, ऐसा करूँ, बंगला बनवाऊँ तो सुख आएगा, गाड़ी लूँ तो सुख आएगा।' ऐसे करता रहता है। पर कुछ आता नहीं। बल्कि और अधिक जंजालों में फँसता है। सुख खुद के भीतर ही है। आत्मा में ही है। इसलिए आत्मा प्राप्त करे तो सुख ही प्राप्त होगा। रात को साढ़े दस बजे सो गए और किसीको दो सौ रुपये उधार दिए हों और विचार आए कि 'आज उसकी मुद्दत पूरी हो गई, उसका क्या होगा?' फिर नींद आएगी क्या? उस घड़ी पर समाधान होने का साधन चाहिए या नहीं चाहिए? समाधान के बिना तो मनुष्य मेड हो जाता है, प्रेशर बढ़ जाता है और हार्ट के दर्द खड़े हो जाते हैं। समाधान हो जाए, तो कुछ चैन मिले। ___ भगवत् उपाय ही, सुख का कारण प्रश्नकर्ता : आपने 'टेम्परेरी' आनंद कहा है और दूसरा ‘परमानेन्ट' आनंद कहा है, पर हमने जब तक वह सुख नहीं भोगा, तब तक उन दोनों में फर्क किस तरह पता चले? दादाश्री : उसका पता ही नहीं चलता। जब तक परमानेन्ट सुख नहीं आया है तब तक इसे ही आप सुख कहते हो। एक गोबर में रहनेवाला कीड़ा हो, उसे फूल में रखें तो वह मर जाएगा, क्योंकि उसे इस सुख की आदत है, परिचित है, उसकी प्रकृति ही ऐसी बन गई है। और फूल के कीड़े को गोबर में अच्छा नहीं लगेगा। लोग कहेंगे कि पैसों में सुख है, पर कुछ साधु महाराज ऐसे होते हैं कि उन्हें पैसे दें तो भी वे नहीं लेते। आप मुझे पूरे जगत् का सोना देने आओ तो भी मैं वह नहीं लँ। क्योंकि मझे पैसे में सुख है ही नहीं। इसलिए पैसे में सख नहीं है। यदि पैसों में सुख हो तो सभी को उसमें से वह सुख लगना चाहिए। जब कि आत्मा का सुख तो सबको ही महसूस होता है। क्योंकि वह सच्चा सुख है, सनातन सुख है। वह आनंद तो कल्पना में भी नहीं आए, उतना अधिक आनंद है! जहाँ आत्मा-परमात्मा के अलावा दूसरी कोई बात नहीं होती, वहाँ पर सच्चा आनंद है, जहाँ संसार की किंचित् मात्र भी बात नहीं होती कि संसार में से किस तरह फायदा हो, किस तरह गुण उत्पन्न हों। लोग सद्गुण उत्पन्न करना चाहते हैं। ये गुण, सद्गुण, दुर्गुण, ये सब अनात्म विभाग हैं और विनाशी हैं। फिर भी लोगों को उनकी जरूरत है। हर एक को हर एक की अपेक्षा के अनुसार अलग-अलग चाहिए। लेकिन जिसे संपूर्ण वीतराग पद चाहिए तो इन सारे सद्गुणों, दर्गणों से परे होना चाहिए और 'खद कौन है' वह जानना चाहिए और वह जानने के बाद आत्मा-परमात्मा की बातों में ही रहे, तो उससे संपूर्ण वीतराग दशा उत्पन्न होती है। प्रश्नकर्ता : सच्चा सुख मिल नहीं रहा और समय बीतता जा रहा दादाश्री : सच्चा सुख चाहिए तो हमें सच्चा बनना पड़ेगा। और
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy