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________________ ९८ आप्तवाणी-४ प्रश्नकर्ता : जिन्दगी में वर्ष कम हैं और रास्ता लम्बा है, पर यह अक्रम वस्तु मिल गई, उससे बहुत उल्लास आता है! (१०) अक्रम मार्ग प्रश्नकर्ता : इतने सारे ज्ञानी पूर्व में हो गए हैं, तो किसीने ऐसा अक्रमिक मार्ग बताया था? दादाश्री : हाँ, बताया था। ऋषभदेव भगवान ने बताया हुआ है। ऋषभदेव भगवान ने अक्रम मार्ग बताकर भरत राजा को संसार में तेरह सौ रानियों के साथ मोक्ष दिया था, दूसरे निन्यानवे बेटों को 'क्रमिक मार्ग' दिया था। प्रश्नकर्ता : वह तो भरत राजा की पात्रता होगी। हमारी वैसी योग्यता कहाँ होगी? दादाश्री : इस 'अक्रम विज्ञान' में योग्यता देखी ही नहीं जाती। मुझसे मिलना चाहिए और वह कहे कि मेरा कल्याण कर दीजिए, तो बहुत हो गया। अहो! ऐसा ग़ज़ब का ज्ञान! यह हमें 'नेचुरल' देन है। मेरी खोज थी, पर अभी यह 'साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शिल एविडेन्स' है। कुदरती रूप से 'लाइट' हो गई है, आप अपना दीया प्रकट कर जाओ। प्रश्नकर्ता : इस 'अक्रम मार्ग' में सातवीं मंजिल पर पहुँचकर फिर चौथी, पाँचवी पर उतर सकते हैं क्या? दादाश्री : नहीं, फिर नहीं उतरता। फिर ऐसा है न, कि यदि खुद को जान-बूझकर खोद डालना हो, फेंक देना हो, तो उसे कौन रोक सकता है? बाकी खुद की इच्छा के बिना कोई गिरानेवाला नहीं है। यहाँ पर ही मोक्ष हो जाना चाहिए। उधार मोक्ष हमें नहीं चाहिए। मोक्ष अर्थात् मुक्तभाव। यहाँ पर ही चिंता, वरीज़ नहीं होती, कोई असर नहीं होता, हमारा ऊपरी कोई है नहीं, ऐसा अनुभव में आता है। यह अनुभव में आना ही चाहिए। अनुभव के बिना तो काम का ही नहीं, अनुभव के बिना तो सब घोटालेवाला कहलाएगा। केश' चाहिए। इसलिए 'दिस इज़ द केश बैन्क ऑफ डिवाइन सोल्युशन।' दादाश्री : ऐसा है न, ऐसा कभी होता नहीं है और हुआ तो अपना काम निकाल लेना है। उल्लास तो आएगा ही न! मझे यह ज्ञान प्रकट हुआ, तब मुझे भी उल्लास आया कि ऐसा ग़ज़ब का ज्ञान ! ग़ज़ब की सिद्धियाँ उत्पन्न हुई हैं। क्योंकि इस वर्ल्ड में ऐसी कोई चीज नहीं है कि जिसकी मुझे भीख हो। मान की भीख, लक्ष्मी की भीख, कीर्ति की भीख, विषयों की भीख, शिष्यों की भीख, मंदिर बनवाने की भीख, किसी भी चीज़ की भीख हमें नहीं थी, तब यह पद प्राप्त हआ है! फिर भी यह 'साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स' हैं। अब इस पद के आधार पर आपको वही दशा प्राप्त हो जाती है। जिनका निदिध्यासन करें उस रूप हो जाते हैं। प्रश्नकर्ता : पूर्वजन्म के योग से ही 'अक्रम' मिलता है न? दादाश्री : यह एक ही साधन है कि जिसके द्वारा मुझसे भेंट हो सकती है। कोटि जन्मों के पुण्य जगें, तब ऐसा योग आ मिलता है। बाक़ी सब क्रमिक मार्ग कहलाते हैं। क्रमिक मार्ग वह 'रिलेटिव' मार्ग है। 'रिलेटिव' अर्थात् भौतिक फल देता है और मोक्ष की ओर धीरेधीरे 'स्टेप बाय स्टेप' ले जाता है। त्याग और तप करते-करते अंत में अहंकार शुद्ध करना पड़ेगा। फिर वहाँ पर आगे मोक्ष का दरवाजा मिलेगा। क्रोध-मान-माया-लोभ, विषय, सांसारिक भाव-इन सबसे अहंकार शद्ध करना पड़ता है, तब वहाँ पर मोक्ष का दरवाजा खुलता है। क्रमिक मार्ग तो बहुत मुश्किलोंवाला है। और यहाँ अक्रम मार्ग में तो 'ज्ञानी पुरुष' आपका अहंकार शुद्ध कर देते हैं। अहंकार और ममता दोनों निकाल देते हैं, फिर रहा क्या? फिर आप अपने स्वरूप के अनुभव में आ जाते हो। आत्मा का अनुभव हो जाए आपको, तभी काम होता है।
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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