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________________ (९) व्यक्तित्व सौरभ आप्तवाणी-४ प्रश्नकर्ता : तीन सौ छप्पन डिग्री का निकलवाने के लिए किन्हीं पात्र जीवों की ज़रूरत पड़ेगी? दादाश्री : हाँ, वैसे पात्र की ज़रूरत पड़ेगी। वह आया कि निकलेगा ही एकदम से। यानी जैसे-जैसे पात्र आएँगे, वैसे-वैसे उच्च ज्ञान निकलता जाएगा। उसे प्रकट करना हमारे हाथ में नहीं है। यह तो रिकॉर्ड है। फिर पात्र भी मिलेंगे और रिकॉर्ड भी बोलेगी। मेरी दशा तू प्राप्त करे तो तेरा भी मोक्ष हो ही जाएगा। मोक्ष बाहर नहीं ढूंढना है, भीतर ही है। प्रश्नकर्ता : आपने कहा कि आप अपने आप को पहचानो तो अपने आप को पहचानने के लिए क्या करें? दादाश्री : वह तो मेरे पास आओ। आप कह दो कि हमें अपने आप को पहचानना है, तब मैं आपकी पहचान करवा दूं। प्रश्नकर्ता : आपके पास से ज्ञान मिला, वही आत्मज्ञान है न? दादाश्री : जो मिला वह आत्मज्ञान नहीं है, भीतर प्रकट हुआ वह आत्मज्ञान है। हम बुलवाते हैं और आप बोलो तो उसके साथ ही पाप भस्मीभूत होते हैं और भीतर ज्ञान प्रकट हो जाता है। वह आपके भीतर प्रकट हो गया है न? महात्मा : हाँ, हो गया है। प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी' की कृपा प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिए? दादाश्री : 'ज्ञानी' की आज्ञाएँ पाले, तब ज्ञानी को खुद को ही पता चल जाता है, ज्ञानी को और कुछ भी नहीं चाहिए। जिस गाँव जाना हो, उस गाँव के नियम में हों तो राजी रहते हैं, दूसरा कुछ नहीं। ....तब वाणी विज्ञान कह जाती है प्रश्नकर्ता : आपकी साधना की लिंक कब से चल रही है? दादाश्री : कितने ही काल से हर एक की लिंकबद्ध टोलियाँ होती ही हैं। ये तो सब लिंक ही हैं। १९५८ में उस दिन यह ज्ञान हुआ था। फिर बाद में यह ज्ञान प्रकट होना चाहिए. इसे प्रकट होने के लिए लिंक मिलती ही रहती है। हमें तीन सौ छप्पन डिग्री का ज्ञान हुआ है, पर वह निकला नहीं है, उससे नीचे का निकलता है। और जिस दिन तीन सौ छप्पन डिग्री तक का निकलेगा, तब तो गज़ब हो जाएगा इस काल का! ..वह कैसा अद्भुत सुख प्रश्नकर्ता : आपको ज्ञान हुआ तब पता चल गया था कि यह मुझे ज्ञान हुआ? दादाश्री : अरे, पता क्या? उस घड़ी सिद्धगति में बैठा होऊँ वैसा अपार सुख बरता, तब फिर उसका पता कैसे नहीं चलता ! बैंच पर बैठा था तो भी सिद्धगति का सुख बरत रहा था! मेरे साथ में सेवा में बैठे थे, उनका तो यों ही मोक्ष हो गया! यह अक्रम तो ग़जब का निकला है !!! 'ज्ञानी' विकसित करें स्व-शक्ति प्रश्नकर्ता : आपके चरणों में विधि करते हैं, उसका क्या अर्थ है? दादाश्री: यह चरणविधि अंदर आत्मा को देह से अलग करती है और अंतरसुख, स्वयंसुख उत्पन्न होता है, सारी निर्बलताएँ चली जाती हैं। ज्ञानी के चरणों में ग़ज़ब की शक्ति होती हैं! 'ज्ञानी' की उपमा? प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी' की उपमा नहीं होती? दादाश्री : उनकी उपमा नहीं है। 'ज्ञानी' कौन? सभी लोग ज्ञानी नहीं कहलाते। जिन्हें देह का मालिकीपन ज़रा भी नहीं, वाणी का, मन का मालिकीपन नहीं है, जो खुद आत्मा में ही निरंतर रहते हैं, जिनमें किंचित् मात्र अहंकार नहीं होता, वे 'ज्ञानी'।
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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