SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६) कुशलता का अँधापन आत्मा के पिता भी नहीं होते और पत्र भी नहीं होते. बहीखाते के लेनदेन के हिसाब के लिए इकट्ठे होते हैं सभी। अब आगे क्या करना है, वह नहीं जानने से आज जोतते रहते हैं। अरे, यह तो जोता हुआ ही है, तैयार ही है। उसमें बहुत ध्यान रखने की ज़रूरत नहीं है। सहज चित्त रखना और दूसरा सब करना। जन्म से मृत्यु तक के सारे ही स्टेशन अनिवार्य रूप से लेकर आए हुए हो। खुद को अच्छा लगता है तब समझता है कि मेरी मर्जी का है और पसंद नहीं हो, तब कहता है कि अनिवार्य है। वास्तव में तो सबकुछ ही अनिवार्य है। यह सब जानना पड़ेगा न? ऐसे कब तक गप्प चलने देंगे? कुछ सार तो निकालना चाहिए न? सार का खाता साथ में रखना चाहिए। सब्जी लेने गए, वह तो अनिवार्य रूप से लानी चाहिए, परन्तु रास्ते में फलाने भाई ने जय-जय किया, उससे छाती ऐसे फूल जाती है! उससे नुकसान ही होता है न? इसलिए बही देखकर सार निकालना चाहिए कि कहाँ नुकसान हुआ? विवाह में गए और किसीने आइए सेठ कहा कि तुरन्त ही आप टाइट हो गए तो देखनेवाला समझ जाता है कि सेठ ने नुकसान उठाया। उसमें सामनेवाले का तो फर्ज है कि आपको 'आइए' कहे, परन्तु आपको वहाँ पर कच्चा नहीं पड़ जाना चाहिए। ऐसे पक्के हो जाओ कि कहीं भी नुकसान नहीं हो। एकबार नुकसान उठाया, दो बार उठाया, बीस बार नुकसान उठाया, पर अंत में आपको सार निकालना चाहिए कि ये जय-जय कह रहे हैं, वह मुझे कह रहे हैं या भीतरवाले को कह रहे हैं? 'भीतर' 'भगवान' बैठे हैं, वे 'शुद्धात्मा' हैं। (७) अंतराय अंतराय किस तरह पड़ते हैं? प्रश्नकर्ता : संसार है ही ऐसी वस्तु कि वहाँ निरे अंतराय ही हैं। दादाश्री : आप खुद परमात्मा हो, पर उस पद का लाभ नहीं मिलता, क्योंकि निरे अंतराय हैं। 'मैं चंदूभाई हूँ' बोले कि अंतराय पड़ते हैं। क्योंकि भगवान कहते हैं कि, 'तू मुझे चंदू कहता है?' यह नासमझी से बोला तो भी अंतराय पड़ते हैं। अंगारों पर अनजाने में हाथ डालें तो वे छोड़ेंगे क्या? भीतर परमात्मा बैठे हैं, अनंत शक्ति है भीतर, वह जितनी चाहिए उतनी मिले वैसा है। पर जितने अंतराय डाले उतनी शक्ति आवृत्त हो जाती इच्छा करो, वहाँ अंतराय पड़ते हैं। जिस चीज़ की इच्छा होती है उसका अंतराय होता है। हवा की इच्छा होती है? इसलिए उसका अंतराय खड़ा नहीं होता। पर पानी की थोड़ी-थोड़ी इच्छा होती है उससे उसके अंतराय खड़े होते हैं। ज्ञानी पुरुष को किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं होती, इसलिए उनका निरअंतराय पद होता है, हर एक वस्त सहज ही आ मिलती है. 'ज्ञानी' को किसी चीज़ की भीख नहीं होती। भिखारीपन छूटे तो आप खुद ही परमात्मा हो। भिखारीपन से ही बंधन है। खुद की वस्तुओं के लिए खुद ही अंतराय खड़े करता है। बुद्धि
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy