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________________ (३) प्रारब्ध-पुरुषार्थ 'साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स' आज पत्थर यहाँ आकर बैठे हों तो अगले साल तो उस तरफ होंगे। उन्हें तो चलना भी नहीं पड़ता न ही कुछ करना पड़ता है और शालिग्राम बन जाता है तो इन जीवों की पत्थर जैसी ही दशा है! और ये पत्थर ही हैं, इनमें से आत्मा निकाल दें तो पत्थर ही हैं ! प्रश्नकर्ता: संयोगों में पुरुषार्थ है क्या? दादाश्री : जो पुरुष हुआ हो, वही पुरुषार्थ कर सकता है। कृष्ण भगवान ने कहा है कि, 'उद्धवजी, अबला तो क्या साधन करे?" जैनों के सबसे बड़े आचार्य आनंदघनजी महाराज क्या कहते हैं? वे कहते हैं, 'हे अजीतनाथ! आप पुरुष हुए हैं क्योंकि आपने क्रोध - मान-माया-लोभ को जीत लिया है इसलिए अजीत कहलाते हैं और मैं तो अबला हूँ क्योंकि क्रोधमान- माया-लोभ ने मुझे जीत लिया है!' अब इतने बड़े आचार्य अपने आप को अबला कहते हैं, तो औरों को तो कुछ कहने को रहा ही नहीं न! ३५ ये सारी ही क्रियाएँ मिकेनिकल चलती ही रहती हैं। वह तो गेहूँ पकते रहेंगे। गेहूँ बाज़ार में आएँगे, वे पीसे जाएँगे और गेहूँ की ब्रेड बनेगी। वह सब 'मिकेनिकल' होता रहेगा। मिकेनिकल एविडेन्स में तो यह सब घटमाळ (श्रृंखला या चक्र) हैं ही! तो सच्चा पुरुषार्थ कौन-सा ? वास्तव में तो यथार्थ पुरुषार्थ चाहिए। प्रकृति का नहीं, पुरुष का पुरुषार्थ चाहिए। जगत् में प्रकृति का पुरुषार्थ चलता है। यह सामायिक किया, प्रतिक्रमण किया, ध्यान किया, कीर्तन किया, वह तो प्रकृति का पुरुषार्थ ! जब कि यथार्थ पुरुषार्थ तो पुरुष होकर करे, तो ही यथार्थ को पहुँचता है। ये 'दादा', इन्होंने 'ज्ञान' और 'अज्ञान' दोनों को पूर्णत: अलग देखा है, वैसा ही आपको दिखाते हैं, तब पुरुष, पुरुष धर्म में आ जाता है, फिर प्रज्ञा सचेत करती है। तब तक प्राकृत धर्म में ही रहता है। प्रश्नकर्ता: सच्चा भाव हो उसे पुरुषार्थ कहा जाता है ? आप्तवाणी-४ दादाश्री : भावाभाव- वह कर्म है, स्वभावभाव वह पुरुषार्थ है । स्वभावभाव अर्थात् किसी चीज़ का 'स्वयं' कर्त्ता नहीं है, स्वभावभाव! उसमें दूसरा कोई भाव नहीं है। उसमें तो ज्ञाता दृष्टा और परमानंद ही रहता है! ३६ स्वरूपज्ञान के बाद सभी स्वभावभाव में आते हैं। स्वयं पुरुष होने के बाद चेतन पुरुषार्थ उत्पन्न होता है। स्वाभाविक पुरुषार्थ उत्पन्न होता है। और जब स्वयं परमात्म पुरुषार्थ में आता है, तब स्वयं ही परमात्म स्वरूप हो गया। सभी संयोग इकट्ठे हों, तभी 'रिलेटिव' कार्य होता है। वह 'व्यवस्थित' है। ज्ञानी क्या कहते हैं कि इस भ्रांति के पुरुषार्थ में थे, अब स्वरूपज्ञान प्राप्ति के बाद 'रियल' पुरुषार्थ में लग जाओ कि जहाँ संयोगों की ज़रूरत नहीं है। 'रियल' पुरुषार्थ में तो किसी वस्तु की ज़रूरत नहीं रहती और 'रिलेटिव' पुरुषार्थ में मन-वचन-काया, सभी संयोगों की ज़रूरत पड़ेगी। स्व-पुरुषार्थ कौन-सा ? पुद्गल परिणति में कहीं भी राग-द्वेष नहीं हो, वह । फिर मार डाले तो भी राग-द्वेष नहीं हो। प्रारब्ध कर्म क्या? संचित कर्म क्या? प्रश्नकर्ता: 'नसीब' और 'व्यवस्थित' में क्या फर्क है? दादाश्री : 'नसीब, लक-अनलक, प्रारब्ध- पुरुषार्थ, तकदीरतदबीर' वे भ्रांत भाषा की बातें हैं, बालभाषा के शब्द हैं। वह बालमंदिर की भाषा है, वह ज्ञानमंदिर की भाषा नहीं है। ज्ञानमंदिर की भाषा में 'व्यवस्थित' है। लोग कहते हैं न 'प्रारब्ध में होगा तो हो जाएगा?' तब कोई आपत्ति उठाए कि, 'पुरुषार्थ किए बिना किस तरह होगा?' यानी ज्ञान ऐसा होना चाहिए कि कोई आपत्ति नहीं उठाए । यह तो गप्प है, लोग न तो प्रारब्ध समझते हैं, न ही पुरुषार्थ को समझते हैं ! बीमार पड़ा, वह प्रारब्ध कर्म नहीं है। भगवान प्रारब्ध कर्म किसे कहते हैं कि यह कुछ भी खाता था, वह उसके प्रारब्ध कर्म से खा रहा था, उसका फल ये मरोड़ उठे, वह आया। खुद को खाना नहीं होता, फिर भी खिलाते हैं, वह प्रारब्ध कर्म और मरोड़ उठते हैं वह प्रारब्ध कर्म का फल है।
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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