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________________ (३) प्रारब्ध-पुरुषार्थ ३१ ३२ आप्तवाणी-४ दादाश्री : वैसा ही है। ये खाने के लिए नैमितिक पुरुषार्थ करना पड़ता है, हाथ, मुँह हिलाना पड़ता है। हम' दखल नहीं करें तो दाँत अच्छी तरह चबाएँगे, जीभ भी अच्छी तरह रहेगी। यह तो खुद सिर्फ दखल ही करता है कि, 'खाने का पुरुषार्थ मैं करता हूँ।' जीभ यदि खाने का पुरुषार्थ करने जाए न तो बत्तीस दाँतों के बीच कितनी बार चब जाए! परन्त जीभ दखल नहीं करती और ऐसा नहीं कहती कै 'मैं परुषार्थ कर रही हैं।' भोजन के समय यदि मिल में पुरुषार्थ (!) करने नहीं जाए, तो खाने की क्रिया बहुत अच्छी तरह स्वाभाविक हो ऐसा है। यह तो मात्र 'देखना' और 'जानना' है। सबकुछ स्वाभाविक प्रकार से चलता ही रहे ऐसा है ! रात को आप हाँडवा (गुजराती व्यंजन) खाने के बाद फिर सो जाते हो! तो उसके बाद उसे पचाने के लिए क्या पुरुषार्थ करते हो? प्रश्नकर्ता : खुराक के पाचन के लिए आगे-पीछे, घूमना-फिरना पड़ता है। तुझे ज्ञान है न कि यह नाक बंद किया तो क्या होगा? यह मशीनरी इस तरह प्रबंधित है कि वह अंदर से श्वास लेती है और फिर वही मशीनरी श्वास फेंकती है। तब ये लोग कहते हैं कि, 'मैं लम्बा श्वास लेता हूँ और मैं छोटा श्वास लेता हूँ!' यह तो तुझे 'तू कौन है?' उसका ही भान नहीं है। यह तो डोरी लिपटती है और लटू घूमता है, उसमें 'मैं घूमा' कहेगा। वर्ल्ड में संडास जाने की सत्ता भी किसीको नहीं है, हमें भी नहीं है। यह 'पुरुषार्थ, पुरुषार्थ' करते हो, वह जीवंत का है या मरे हुए का? पुरुष हुए बिना पुरुषार्थ किस तरह से होगा? आप जिसे आत्मा मानते हो, वह तो निश्चेतन चेतन है। यह पुरुषार्थ कौन करता है? प्रश्नकर्ता : वह तो मैं ही करता हूँ न! दादाश्री : पर 'मैं कौन?' यह तो 'मैं', वही लटू है न! और लटू तो क्या पुरुषार्थ करनेवाला है? और यदि खुद पुरुषार्थ कर सकता हो तो कोई मरे ही नहीं, पर यह लटू तो कभी भी लुढ़क जाता है। यह लटू डॉक्टर से कहता है, 'साहब, मुझे बचाओ।' अरे, डॉक्टर का बाप मर गया, माँ मर गई, उन्हें वह नहीं बचा सका तो तुम्हें क्या बचानेवाला है वह? डॉक्टर के बाप को गले में कफ हो गया हो तो हम कहें कि, 'आप इतनेइतने ओपरेशन करके पेट में से गाँठे निकाल लेते हो, तो यह ज़रा कफ ही निकाल लो न!' तब वह कहेगा कि, 'नहीं, ऐसे करने से तो वे खत्म हो जाएंगे।' तब यह गैरजिम्मेदारी से कहता है कि, 'मैंने बचाया।' अरे, अर्थी नहीं निकलनेवाली हो तो ऐसे बोल। तू पहले तेरी अर्थी उठने से रोक! यह तो जाने कहाँ मर जाओगे! इसलिए बात को समझो। पाचन में पुरुषार्थ कितना? यह अभी नाश्ता यहाँ पर आया है, उसे खाने में क्या पुरुषार्थ करना पड़ता है? यदि इस खाने की क्रिया में पुरुषार्थ करना पड़ता हो तो वह और जगत् का पुरुषार्थ, दोनों समान ही हैं। खाने के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : वह क्रिया पाचन के लिए निमित्त है और सो जाओ तब श्वासोच्छ्वास अच्छे चलते हैं, इसलिए ही तो मनुष्य फ्रेश हो जाता है। आप नींद में हों, तो भी अंदर पाचन के लिए आवश्यक पाचकरस, बाइल, वगैरह मिलते ही रहते हैं। उसे चलाने के लिए कौन जाता है? जैसे अंदर का अपने आप चलता है, वैसे ही बाहर का भी सबकुछ अपने आप ही चलता है। मात्र नैमित्तिक क्रिया, प्रयत्न वगैरह करना पड़ता है। बाक़ी सबकुछ 'व्यवस्थित' प्रकार से ही प्रबंधित होता है। जन्म लिया तब से ही भोगवटो (सुख-दुःख का असर), मान-अपमान, यश-अपयश सब लेकर ही आया हुआ है, पर यह अहंकार बाधा डालता है। जो कुछ क्रिया होती है, उसमें खुद को कर्ता मानता है। इसमें करने जैसा क्या है? मात्र आत्मा जानना है। पेट में हाँडवा डालते हैं और अंदर कदरती सब क्रियाएँ होती हैं। उसी प्रकार बाहर सब कुदरती प्रकार से चलता है। कितनी खुराक, कितने कदम, किस तरह चलना, कितना चलना, सब अपने आप ही होता रहता है। यह तो मात्र अहंकार करता है, अक्कलमंदी करता है और मानता है कि खुद पुरुषार्थ कर रहा है। पर पुरुष हुए बिना पुरुषार्थ नहीं होता। यह तो 'ज्ञानी
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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