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________________ (२) ध्यान २५ आप्तवाणी-४ शुद्धात्मा हूँ' वह भान हो, तब से ही उसका ध्यान अपने आप रहा ही करता है, आपको करना नहीं पड़ता। जहाँ कुछ भी करने का है, वह तो संयोगों के अधीन है। संयोग हों तो होगा और नहीं हों तो नहीं होगा। और यह तो शुद्धात्मा का एक बार भान हुआ कि ध्यान अपने आप उत्पन्न होता ही है। एक हीरा किसी जगह पर रखा हो और सिर्फ आप अकेले ही जानते हों, तो वह आपके खयाल में होता है कि इस जगह पर रखा है तो आपका ध्यान वहाँ रहा ही करता है! ससुराल में बैठे हों, तब भी आपका ध्यान वहीं होता है। भूल जाएँ उस समय प्रतीति के रूप में होता है। नहीं तो खयाल के रूप में तो होता ही है। ध्यान का भाई ही खयाल है! अहंकार-ध्यान में नहीं, पर क्रिया में प्रश्नकर्ता : ध्यान मुझे किस तरह करना है? ठीक से होता नहीं। मुझे सीखना है। दादाश्री : ध्यान आप करते हो या दूसरा कोई करता है? प्रश्नकर्ता : मैं करता हूँ। दादाश्री : किसी समय नहीं हो पाए, वैसा होता है क्या? प्रश्नकर्ता : हाँ, होता है। दादाश्री : उसका कारण है। जब तक आप चंदूलाल हो', तब तक कोई काम 'करेक्ट' नहीं होता। आप चंदूलाल हो' वह बात कितने प्रतिशत सच होगी? प्रश्नकर्ता : सौ प्रतिशत। दादाश्री : जब तक यह 'रोंग बिलीफ़' है, तब तक 'मैंने इतना किया, ऐसे किया', वह इगोइज़म है। जहाँ-जहाँ करो, उसके कर्त्तापन का इगोइज़म होगा और कर्त्तापन का इगोइज़म बढ़ेगा, वैसे-वैसे भगवान दूर होते जाएँगे। यदि आपको परमात्मापद जानना हो तो इगोइजम जाएगा तब काम होगा। ध्यान यानी किसीको आए नहीं, वह ध्यान है। जो किया जाता है वह अहंकार से है। इसलिए वह ध्यान नहीं कहलाता, वह एकाग्रता कहलाती है। जहाँ अहंकार नहीं होता है, वहाँ ध्यान होता है। ध्यान अहंकार से नहीं हो सकता है। ध्यान तो समझने जैसी चीज़ है, करने की नहीं। ध्यान और एकाग्रता में बहुत फर्क है। एकाग्रता के लिए अहंकार की जरूरत है। ध्यान तो अहंकार से निर्लेप है। अहंकार घटे-बढ़े, वह आपके ध्यान में रहता है या नहीं रहता? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : अहंकार बढ़ा या कम हुआ, वह ध्यान में रखे, उसे ध्यान कहते हैं। आर्तध्यान और रौद्रध्यान में भी अहंकार काम में नहीं आता। प्रश्नकर्ता : धर्मध्यान में अहंकार है न? दादाश्री : उसमें भी अहंकार नहीं है। ध्यान में अहंकार नहीं है, क्रिया में अहंकार है। प्रश्नकर्ता : रौद्रध्यान और आर्तध्यान में निमित्त तो अहंकार ही है न? दादाश्री : सिर्फ निमित्त ही नहीं, परन्तु क्रिया भी अहंकार की है। क्रिया, वह ध्यान नहीं है। पर क्रिया में से उत्पन्न होनेवाला परिणाम, वह ध्यान है। और जो ध्यान उत्पन्न होता है, उसमें अहंकार नहीं है। आर्तध्यान हो जाता है, उसमें 'मैं आर्तध्यान कर रहा हूँ' ऐसा नहीं होता, इसलिए ध्यान में अहंकार नहीं होता। अहंकार 'किसी ओर जगह' पर काम में आए, तब ध्यान उत्पन्न होता है। प्रश्नकर्ता : ध्यान में अहंकार नहीं है, कर्ता नहीं है, तो किस तरह बंधता है? दादाश्री : आर्तध्यान होने के बाद 'मैंने आर्तध्यान किया' ऐसा माने, वहाँ कर्ता बनता है और उसका बंधन है। प्रश्नकर्ता : आपने कहा कि ध्येय नक्की हो जाए और खुद ध्याता
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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