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________________ (४०) वाणी का स्वरूप ३२१ ३२२ आप्तवाणी-४ डिस्चार्ज भाव हैं और उसके आधार पर वाणी निकलती है। इसलिए वाणी, वह डिस्चार्ज का भी डिस्चार्ज है। और मन, वह प्योर डिस्चार्ज है। डिस्चार्ज भाव अर्थात् निर्जीव भाव। प्रश्नकर्ता : वाणी की मूल टेप किस तरह से बनी? दादाश्री : आत्मा को परमाणुओं के संयोग मिल जाते हैं और वहाँ चार्ज हो जाता है। आत्मा की हाज़िरी में भावाभाव के स्पंदन होते हैं, उसमें इगोइज़म मिल जाए, तब वह स्पंदन टेप हो जाता है। वाणी का ऐसा है कि वह दो व्यू पोइन्ट 'एट ए टाइम' नहीं बता सकती। इसलिए व्यक्त करने के लिए दूसरा वाक्य दूसरी बार बोलना ही पड़ता है। 'दर्शन' में एट ए टाइम समग्र प्रकार से देखा जा सकता है, परन्तु उसका वर्णन करना हो तो कोई भी व्यक्ति एट ए टाइम व्यक्त नहीं कर सकता। इसलिए वाणी स्यादवाद कहलाती है। मंत्र बोलना स्थूल है। स्थूल का फायदा मिलता है, परन्तु फिर सूक्ष्म में जाना चाहिए।'दादा भगवान को नमस्कार करता हैं' ऐसा बोलने के बाद 'दादा' दिखने चाहिए, फोटो के बिना भी 'दादा' दिखने चाहिए। फिर सूक्ष्मतम में जाना चाहिए और सूक्ष्मतम में तो तुरन्त फल मिले, ऐसा है! जहाँ प्रकट दीपक, वहीं काम होता है आत्मज्ञान जाना जा सके वैसा नहीं है। वह तो पूर्व का बहुत कुछ करतेकरते आया हो तो प्रकट होता है, या फिर किसी 'ज्ञानी पुरुष' के पास से स्वयं को प्रकट हो जाता है! वर्ना तो आत्मज्ञान जाना जा सके ऐसी वस्तु नहीं है। सारे शास्त्र जान ले, परन्तु उससे आत्मा नहीं जाना जा सकता। कितने ही शास्त्र मौखिक होते हैं परन्तु उससे आत्मा का पता नहीं चलता, उसे पता चले तो शब्दों से पता चलता है। वह कैसा होता है? कि 'आत्मा ऐसा है, ऐसा है', ऐसा रहता है। अरे, तू ऐसा कह न कि 'मैं ऐसा हूँ, मैं ऐसा हूँ!' तब वह कहता है कि, 'नहीं, वैसा मझसे कैसे कहा जा सकता है?' अर्थात् जो 'उस' रूप हो चुका हो वही बोल सकता है कि, 'मैं अनंत ज्ञानवाला हूँ, अनंत दर्शनवाला हूँ, अनंत शक्तिवाला हूँ।' आप ऐसा बोलते हो या नहीं बोलते? प्रश्नकर्ता : हाँ, बोलते हैं। दादाश्री : क्योंकि आप 'उस' रूप हो चुके हो। प्रश्नकर्ता : परन्तु दादा, आत्मा की पहचान तो जिसने पहचाना हो वे ही करवा सकते हैं न? दूसरा कोई नहीं करवा सकता न? दादाश्री : इसलिए कहा है न कि आत्मज्ञानी को देहधारी परमात्मा के रूप में जान। पूर्व के ज्ञानी कह गए हैं कि 'ज्ञानी पुरुष' देहधारी रूप में परमात्मा हैं, इसलिए वहाँ पर काम निकाल लेना। 'ज्ञानी पुरुष' के अंदर ही आत्मा प्रकट हुआ है, जो जानने जैसा है। तुझे आत्मा जानना हो तो 'ज्ञानी पुरुष' के पास जा। दूसरा कोई भी शास्त्र का या पुस्तकों का आत्मा नहीं चलेगा। पुस्तक के अंदर केन्डल का चित्र बनाया हो, वह दिखता ज़रूर है कि केन्डल ऐसा होता है, परन्तु उससे उजाला नहीं होता। उससे कुछ होता नहीं है। आत्मा जानने के लिए तो प्रत्यक्ष 'ज्ञानी पुरुष' से भेंट होनी चाहिए, तभी 'काम' होता है। जय सच्चिदानंद आत्मा नहीं जानने से यह सब जगत निम्न स्तर पर चला गया है। यह चलता-फिरता दिखता है, उसमें ऐसा मानते हैं कि आत्मा के बिना कुछ भी नहीं चल सकता। परन्तु जिसे वे चेतन कहते हैं, वह चेतन नहीं होता है। हम उसे 'निश्चेतन-चेतन' कहते हैं। वह सच्चा चेतन नहीं है, डिस्चार्ज चेतन है, चाबी भरा हुआ चेतन है। वास्तविक चेतन तो अंदर है, जो निरंतर स्थिर है और अचर है और निश्चेतन चेतन तो सचर है। इसलिए इस जगत् को सचराचर कहा है। जो विनाश होनेवाला है वह सचर और जो निरंतर है वह अचर। इसलिए तमाम शास्त्रों में लिखा है कि आत्मज्ञान जानो, परन्तु
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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