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________________ २९६ आप्तवाणी-४ (३८) 'स्व' में ही स्वस्थता अवस्था में अस्वस्थ प्रश्नकर्ता : मिथ्यात्व की परिभाषा क्या है? दादाश्री : मिथ्यात्व अर्थात् अवस्था में तन्मयाकार रहे-वह, उसका फल क्या है? अस्वस्थता। और सम्यक्दर्शन की परिभाषा क्या है? स्वस्थ । 'स्व' में मुकाम करनेवाले अवस्था में मुकाम नहीं करते। वे अवस्था को निकाली कहते हैं और 'स्व' में ही निराकुल मुकाम होता है। निराकुलता सिद्ध भगवंत का स्वगुण है। अपना साइन्स इतना सुंदर है कि आपको कुछ भी विचार नहीं करना पड़ता। निकाल कहा कि छूट गए! पूरा जगत् अवस्था में रहा करता है, अवस्था से बाहर नहीं निकल सकता। अवस्था में रहनेवाले को तो रात-दिन अस्वस्थता रहती है। गाड़ी में जगह नहीं मिले तो भी अंदर बेचैनी हो जाती है। अरे, उसमें बेचैन क्यों होता है? कह दे न कि मेरे कर्म के उदय ऐसे हैं। अरे, गाड़ी में बैठे हुए लोगों को देखता रहता है कि कौन खड़ा हो रहा है!! मिथ्यात्वी की समझ कैसी होती है? अवस्था में ही तन्मयाकार रहता है। गरीबी की अवस्था उत्पन्न हुई तो गरीबी में, श्रीमंताई हुई तो उसमें तन्मयाकार रहता है, ऐसे छाती फुलाकर घूमता रहता है! बुख़ार आए तो उसमें तन्मयाकार हो जाता हैं, मुझसे नहीं चला जाता, कहेगा। मेरे जैसा कहे कि, 'इसके पीछे बाघ छोड़ दो।' तब वह दौड़ेगा या नहीं दौड़ेगा? बेकार ही ये चला नहीं जाता, चला नहीं जाता करके उल्टे नरम हो जाते हैं। जैसा बोले वैसा हो जाता है। क्योंकि आत्मा का स्वभाव कैसा है कि जैसा बोले वैसा हो जाता है। फिर पैर समझते हैं कि हम चलते नहीं हैं. तो भी कोई डाँटनेवाला नहीं है। हम उन्हें कहें कि, 'नहीं क्यों चलोगे? उसका करार अभी तक पूरा नहीं हुआ है। ऐसे दोएक बार टोकें तो अपने आप चलेंगे। यह बाघ पीछे पड़े तब क्यों चलते हैं? इस देह को खिलाते हैं, पिलाते हैं, मसालेदार चाय पिलाते हैं, फिर भी नहीं चलेगी? जिस अवस्था में आया, उस अवस्था का जतन करता रहता है। पूरी ज़िन्दगी मुक्त होता है, परन्तु अंतिम छह महीने जेल में डाल दिया हो तो शोर मचाता है कि, 'मैं कैदी हो गया!' शादी करवाए तब सौभाग्यवती का सुख बरतता है, और फिर पति मर जाए तब वैधव्य का दुःख खड़ा हो जाता है। मैं तो विधवा हो गई' कहेगी। पिछले जन्म में विधवा हुई थी और फिर वह वापिस सौभाग्यवती हुई ही थी न? शादी और वैधव्य, दूसरा है ही क्या जगत् में? सभी अवस्थाएँ बदलती हैं। आत्मा उसी रूप में रहता है। आत्मा में बदलाव होता ही नहीं है। वस्तुओं का विनाश होता ही नहीं है। अवस्थाओं का प्रतिक्षण विनाश होता है। जगत् अवस्था में ही जी रहा है। 'मैं चंदू हूँ, यह मेरा बेटा है, यह मेरी पत्नी है' इस तरह अवस्था में ही मुकाम करता है! फिर कहेगा कि, 'मैं बूढ़ा हो गया!' आत्मा तो कहीं बूढ़ा होता होगा? ये सारी आत्मा की अवस्थाएँ नहीं है। प्राकृत अवस्थाएँ हैं। ये किसलिए उत्पन्न हो गई हैं? संयोगों के दबाव से। आत्मा को सिर्फ स्पर्श होने से ही कॉज़ेज़ खड़े हो जाते हैं। वे चार्ज होते हैं और उसका फिर डिस्चार्ज होता है। पिछले जन्म के बच्चों का क्या हुआ? वे सब अभी तक आपको याद करते हैं। पत्र वगैरह लिखा है उन्हें? यह तो मरने का समय आए, तब कहेगा कि, 'मेरी छोटी बेटी रह गई है!' पिछले जन्म के बच्चों को छोड़कर आया और इस जन्म में 'मेरे बच्चे, मेरे बच्चे' करके उनमें ही तन्मयाकार रहता है। यह तो पिछली अवस्थाएँ निरंतर भूलता रहता है और नई अवस्था में तन्मयाकार रहता है! अवस्थाओं में तन्मयाकार रहे, उसका नाम संसार, वह संसारबीज डालता है और स्वरूप में तन्मयाकार रहे उसका नाम मोक्ष।
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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