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________________ (३५) कर्म की थियरी कर्म खपा दिया। वह तो निमित्त है। २६१ कर्म छेदन की सत्ता प्रश्नकर्ता: कर्म का फल तो भोगना ही पड़ेगा न ? दादाश्री : हाँ। कर्म का नियम ही ऐसा है। प्रश्नकर्ता: 'ज्ञानी' उनमें से छुड़वा सकते हैं? दादाश्री : 'ज्ञानी पुरुष' तो आपके कर्मों को भस्मीभूत कर देते हैं। परन्तु उसमें दो प्रकार के कर्म होते हैं, एक बर्फ के रूप में जम चुके हैं वे और दूसरे पानी या भाप के रूप में होते हैं। ज्ञानी पानी और भाप के रूप में रहे हुए कर्मों को नष्ट कर देते हैं। परन्तु बर्फरूप हो चुके कर्मों को भोगना ही पड़ेगा ! परन्तु स्वरूपज्ञान देने के बाद उन कर्मों के भुगतान में फर्क पड़ जाता है। सूली का घाव सूई जैसा लगता है। 'ज्ञानी पुरुष ' कारण स्वरूप में रहे हुए कर्मों का नाश कर देते हैं, परन्तु आज जो कार्य स्वरूप के कर्म हैं, बर्फरूप हो चुके हैं, उन्हें तो भुगतना ही पड़ेगा। प्रभुस्मरण से हेल्प प्रश्नकर्ता: हमारे कर्म हमें तारें या डुबोएँ, उसमें प्रभुस्मरण क्या काम करता है? दादाश्री प्रभु प्रकाशक हैं, सर्व प्रकाशक हैं। यदि उन्हें याद नहीं करे तो प्रकाश नहीं मिलेगा, उतनी ही अड़चन है। बाकी उन्हें दूसरा कुछ लेना-देना नहीं है। हमें यदि प्रकाश की आवश्यकता है, उबरने में या डूबने में हेल्प चाहिए तो प्रभुस्मरण करना चाहिए। उन्हें याद करो तो आपको कुछ प्रकाश मिले बगैर रहेगा ही नहीं। उससे आपके कर्म अच्छे होंगे, परन्तु प्रभुस्मरण सच्चे दिल से होना चाहिए। उसमें गप्प नहीं चलती कि भगवान ऊपर हैं। ऊपर तो कोई बाप भी नहीं है। भीतर बैठे हैं, वे ही भगवान हैं। भगवान को भी कर्मबंधन प्रश्नकर्ता : पृथ्वी पर जो-जो भगवान हो चुके हैं, ऋषभदेव, आप्तवाणी-४ महावीर, नेमीनाथ वे सभी कर्म के बंधन में आए हुए थे क्या? दादाश्री : सभी कर्म के बंधन में आए हुए थे, तभी तो माता के पेट से जन्म हुआ। कोई भगवान ऐसे नहीं हैं कि जो माता के पेट से नहीं जन्मे हों। जो भगवान हो चुके हैं, उन्होंने दो या तीन जन्मों पहले आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, फिर अंत में भगवान हुए थे। जिन्हें आत्मा का लक्ष्य प्राप्त हो चुका हो, वे दो-चार जन्मों में भगवान हो सकते हैं। सीधेसीधे मोक्ष में जाना हो तो वैसे भी जाया जा सकता है और जगत्कल्याण करना हो तो भगवान हुआ जा सकता है, दोनों में से एक होता है। 'ज्ञानी पुरुष' के दिव्य कर्म २६२ शास्त्रकारों ने ज्ञानी के प्रत्येक कर्म को दिव्यकर्म कहा है, क्योंकि स्वयं संपूर्ण निहंकारी, संपूर्ण अकर्त्तापद में बैठे हुए होते हैं, इसलिए वीतराग कहलाते हैं। इस काल में संपूर्ण वीतराग नहीं होते हैं। हम वीतराग हैं परन्तु संपूर्ण नहीं हैं। हम जगत् के तमाम जीवों के साथ वीतराग हैं, सिर्फ हमारे जगत्कल्याण करने के कर्म के प्रति ही हमें राग रहता है। जगत् कल्याण करने की खटपट के लिए हमें थोड़ा राग रह गया है। वह राग भी कर्म खपाने जितना ही है। वर्ना 'हमें' तो हमारा मोक्ष निरंतर बरतता ही रहता है। ज्ञानी को काल, कर्म और माया स्पर्श नहीं करते। द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव और भव से अप्रतिबद्ध रूप से विचरें, वे ज्ञानी । कर्म का स्वरूप लोग कहते हैं कि कर्म लिपटे हुए हैं। परन्तु कर्म न तो स्त्री जाति हैं न ही पुरुष जाति । वे तो नपुसंक हैं और आप खुद परमात्मा हो ! कर्म वास्तव में जड़ नहीं हैं और चेतन भी नहीं है, परन्तु निश्चेतनचेतन है। कर्मों का फल मिलता है, वह भीतर आत्मा बिराजमान है इसलिए मिलता है। निश्चेतन चेतन को शुद्ध चेतन का स्पर्श होने से कर्म चार्ज होते हैं, खुद का स्वरूप जान ले तब कर्म बंधने बंद हो जाते हैं। प्रश्नकर्ता: आत्मा और कर्म का कैसा संबंध है?
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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