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________________ (२९) चिंता : समता २२१ २२२ आप्तवाणी-४ समता किसे कहते हैं कि फूल चढ़ाए तो उस पर राग नहीं या फिर गालियाँ दे उस पर द्वेष नहीं, उसे समता कहते हैं। शुभ हो या अशुभ हो, दोनों को समान माने। शुभाशुभ में राग-द्वेष नहीं हो, वह समता है। इस प्रकार से समान तो वीतराग ही मान सकते हैं। समभाव-समता, फर्क क्या? प्रश्नकर्ता : समता और समभाव में क्या फर्क है? दादाश्री : बहुत फर्क है। समभाव मतलब क्या? यह तराजू इस तरफ झुका तो दूसरी तरफ कुछ डालकर बराबर करें, तो वह मेंढकों का तोल (मेंढक रखकर तोल बराबर करने का प्रयत्न करना) कितनी देर तक टिकेगा? फिर भी समभाव को उत्तम भाव माना गया है। बैलेन्स रखने का प्रयत्न करते हैं न? और समता यानी फल चढ़ाए उस पर राग नहीं और पत्थर मारे तो उस पर द्वेष नहीं, ऊपर से उसे आशीर्वाद देते हैं! 'समभाव से निकाल' नक्की होने पर हल हमें नहीं देखना है, हमें तो दृढ़ निश्चय करना है कि समभाव से निकाल करना ही है। कभी न कभी वह नरम पड़े बगैर रहेगा ही नहीं। सबकुछ 'व्यवस्थित' के ही अनुसार होता है। समताभाव : ज्ञाता-दृष्टाभाव प्रश्नकर्ता : समता और ज्ञाता-दृष्टाभाव, इन दोनों में क्या फर्क है? दादाश्री : समता के 'स्टेज' में तो झोंका आ जाता है, इसलिए ऐसे चपत मारकर जागृत करना पड़ता है। जब कि ज्ञाता-दृष्टा तो कायम जागृत ही कहलाता है। इस 'अक्रम' का 'समभाव से फाइलों का निकाल' - वह तो एक ग़ज़ब की चीज है! यह हमारी आज्ञा पालने का आप निश्चय करो कि 'फाइलों का समभाव से निकाल' करना ही है, तो वह आपको तुरन्त हाज़िर हो जाएगा। हमारा निश्चय चाहिए कि 'निकाल (निपटारा) करना है', ये शब्द ही ज्ञानस्वरूप हैं। फिर बाहर का सब 'व्यवस्थित' के अधीन है। आपकी दृढ़ भावना चाहिए कि यह आज्ञा पालनी ही है। समभाव से निकाल करना अर्थात संयोगों का अनुसरण करके काम लेना। समता में ऐसा नहीं होता। अनचाहा व्यक्ति आए तब अंदर मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार सभी उछलकूद करते हैं। उस घड़ी हम कहें कि समभाव से निकाल करना है, तब सब चुप हो जाते हैं। समभाव से निकाल करने का नक्की किया, तब से ही सामनेवाले व्यक्ति पर उसका असर पड़ता है और सामनेवाला भी ठंडा हो जाता है। कभी बहुत गाढ़ हिसाब हो तो ठंडा नहीं भी होता! वह प्रश्नकर्ता : समता क्या मन की स्थिति है? दादाश्री : मन की स्थिति है, परन्तु मन की ऐसी स्थिति कब रहेगी? भीतर जागृति हो, ज्ञान हो, तभी वह रहेगी। नहीं तो मन हमेशा ही इस ओर या उस ओर झुका हुआ ही रहता है। समता कब रहती है? आत्मा प्राप्त हो जाए तब। जब तक 'मैं चंदूलाल हूँ', तब तक विषमता हुए बगैर रहेगी ही नहीं और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' उसका भान हुआ तो काम हो गया। तृष्णा, तृप्ति और संतोष संसार का खाएँ, पीएँ, भोगें उससे संतोष होता है, परन्तु तृप्ति नहीं होती। संतोष में से नये बीज डलते हैं। परन्तु तृप्ति हुई तो तृष्णा खड़ी नहीं रहती, तृष्णा टूट जाती है। तृप्ति और संतोष में बहत फर्क है। संतोष तो सभी को होता है, परन्तु तृप्ति तो किसीको ही होती है। संतोष में फिर से विचार आते हैं। खीर खाने के बाद उसका संतोष होता है, परन्तु उसकी इच्छा फिर से होती है। इसे संतोष कहा जाता है। जब कि तृप्ति में तो फिर से इच्छा ही नहीं होती, उसका विचार ही नहीं आता। तृप्तिवाले को तो विषय का एक भी विचार ही नहीं आता। यह तो चाहे जैसे समझदार हों, परन्तु तृप्ति नहीं होने से विषयों में फंस गए हैं! वीतराग भगवान का
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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