SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तवाणी-१ १४३ १४४ आप्तवाणी-१ अक्रम में सात के बाद सत्तावन आकर खड़ा रहता है। लिन्क मिलता ही नहीं। रत्नागिरि में एक आदमी मेरे पास आकर मुझसे कहने लगा, 'दादाजी, मैं जहाँ हाथ डालता हूँ, वहाँ सोना ही हाथ में आता है!' मैंने उसे कहा,'भैया इस समय तेरा लिन्क (क्रम) चल रहा है इसलिए। पर थोड़े दिनों के बाद तेरा लिन्क टूटेगा, तब मुझे याद करना।' हुआ भी वही। उसका धंधा ऐसा चौपट हुआ कि पति-पत्नी दोनों ने विष पी लिया। वह तो संयोगवश दोनों बच गए, तब उसे मेरी बात याद आई। यह तो क्रम और अक्रम, आते-जाते हैं, उसीका नाम ही संसार। इच्छा तो पिछला हिसाब है, जब कि चिंतन में योजना बनाते हैं। तन्मयाकार होकर कॉज डालते है। इच्छा इफेक्ट है, जब कि चिंतन कॉज है, चाजिंग पोइन्ट है। शास्त्रकारों का कहना है कि इच्छा अपने आप ही होती है, करने की ज़रूरत नहीं है। सूर्य अस्त हो रहा हो, तब भी लोगों को तो ऐसा लगता है कि उदय हो रहा है, पर उसकी चिंता नहीं करना, वे अस्त हो रही इच्छाएँ हैं! मैंने अपने महात्माओं को बताया है कि आपकी बाँझ इच्छाएँ रही हैं, उनका बीज नहीं पड़ता इसलिए आपकी अस्त होती इच्छाएँ रही हैं। लोगो के उदय होती और अस्त होती दोनों प्रकार की इच्छाएँ होती है। इस कलयुग में तो चटनी की इच्छावाले ही होते हैं, सबकुछ भुगतने की इच्छवाले नहीं होते। एक ज़रा-सी चटनी के लिए सारी जिंदगी निकाल देते है। अरे! मैंने ऐसे सेठ लोगों को देखा है कि जो भगवान महावीर की सभा में रात-दिन पड़े रहते थे। सेठानी से कहते, 'त पूरी भाजी यहाँ सभा में लेकर आना, मैं यहीं खा लूँगा।' भगवान की वाणी उसके कानों को इतनी मधुर लगती थी कि वहाँ से खिसकते ही नहीं थे, पर चटनी खाने की इच्छा रह गई थी, इसलिए आज तक भटक रहे हैं। जो होनेवाला हो, उसकी पहले इच्छा होती है। मैट्रिक पास होनेवाला हो तो, मैट्रिक होने की इच्छा पहले होती है। अंतराय टूटते हैं, तब अपनी इच्छा के अनुसार मिल जाता है। सत्संग में पैसे खर्च करने हैं, ऐसी इच्छा तो बहुत होती हैं, पर करे क्या? पहले के अंतराय पड़े होने के कारण संयोग मिलते हैं, फिर भी पीछे रह जाता है।। जब अंतराय टूटते हैं, तब सहज ही सब इच्छानुसार हो जाता है। इच्छा, भाव नहीं है। प्रश्नकर्ता : इच्छा और भाव में क्या अंतर है? दादाश्री : यह रुई पड़ी है, उसमें हर्ज नहीं है, पर यदि दियासलाई लेकर जलाएँ, तो वह इच्छा कहलाती है। इच्छा प्रकट अग्नि है। वह जब तक पूरी नहीं होती, तब तक सुलगती रहती है। वस्तु को जलाना, वह इच्छा है और वह तेरे अंदर सुलगती रहती है। हमें कैसा है कि हमारे पास सुलगाने के लिए दियासलाई ही नहीं होती। उदय होती इच्छा और अस्त होती इच्छा यानी चार्ज इच्छा और डिस्चार्ज इच्छा। खाना-पीना वह सब अस्त होती इच्छाएँ हैं, उसमें हर्ज नहीं है, पर उदय होती इच्छा बंधनकर्ता है और वह दुःख खड़े करती भाव अर्थात् क्या? 'शुद्धात्मा' में किसी भी प्रकार का भाव ही नहीं है। प्रतिष्ठित आत्मा के भाव को भाव कहते हैं। प्रतिष्ठित आत्मा ज्ञानी है और अज्ञानी भी है। अज्ञानी के भाव, मन के दृढ़ परिणाम में होते हैं। मुझे प्रतिक्रमण करना ही है, ऐसा भाव दृढ़ करें, तो वैसा द्रव्य उत्पन्न होता है और उस द्रव्य में से फिर भाव उत्पन्न होता है। प्रश्नकर्ता : भावमन और द्रव्यमन क्या है? दादाश्री : प्रतिष्ठित आत्मा भाव करता है, तब भावमन की शुरूआत होती है और उससे द्रव्यमन उत्पन्न होता है। भावमन के भी दो प्रकार हैं: चार्ज और डिस्चार्ज।
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy