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________________ आप्तवाणी - १ १२७ तो आदत पड़ जाएगी। वैसे ही मन में बारूद गोला फूटता है और उसके आदी हो गए हैं, इसलिए पता नहीं चलता कि यह कौन-सा बारूद फूट रहा है? कोई असर ही नहीं होता है। उलटा-सीधा बारूद इकट्ठा हो गया है। हम समझें कि यह फूलझड़ी है, और फूटती है रॉकेट की तरह । वैसे ही मन में भी ऐसा उलटा-सीधा भरा था, वैसा फूटता है। बुढ़िया की तरह मन के साथ झंझट नहीं करें, तो आदत पड़ जाएगी। मन की किच-किच का बुढ़िया की किच-किच की तरह कोई खास असर नहीं होता । 'हमारा' तो इन मन-बुद्धि- चित्त और अहंकार के साथ 'ज्ञाता ज्ञेय' का नाता है। हम ज्ञाता और अंतःकरण ज्ञेय। ज्ञेय-ज्ञाता संबंध, शादी संबंध नहीं। इसलिए अलग ही रहता है वह 'हम' से । यह जो लोग हिप्नोटाइज़ करते हैं, वह अंत:करण पर होता है। अंतःकरण के सभी भागों को झड़प लेता है। पहले चित्त को झड़पता है, फिर दूसरे झड़प में आ जाते हैं। अंत:करण पर असर हो तब बाह्यकरण पर असर होता है। पहला असर अंतःकरण पर होता है। मन शून्य हो, तब बाह्यकरण उसके कहने के अनुसार बरतता है। हिप्नोटाइज़ होने के बाद खुद को पता नहीं चलता। खुद शून्य हो जाता है, फिर होश में आने पर क्या हुआ था, वह याद तक नहीं आता। सारे अंतःकरण की शून्यता हो जाए, वहाँ होश ही नहीं रहता न? हर किसी पर हिप्नोटिज़म नहीं हो सकता। वह भी हिसाब हो तभी हो सकता है। यह तो रूपक है। हिप्नोटिज़म का असर कुछ समय तक रहता है, ज़्यादा नहीं रह सकता । देह के साथ अंत:करण की भेंट रखकर, एक ही घंटा ज्ञानी पुरुष के साथ बैठें, तो संसार का मालिक हो सकता है। हम उस एक घंटे में तो आपके सारे पापों को भस्मीभूत करके, आपके हाथों में दिव्यचक्षु दे देते हैं, शुद्धात्मा बना देते हैं। फिर आप जहाँ जाना चाहें, वहाँ जाइए न! यह ज्ञान तो ठेठ मोक्ष में पहुँचने तक साथ ही रहेगा। यहाँ हमारी हाज़िरी में अंत:करण की शुद्धि होती रहती है। उसमें दुःख होते हों, वे बंद हो जाते हैं, उपरांत शुद्धि होती है। उस शुद्धि से तो सच्चा आनंद उत्पन्न होता है! सदा की शांति होती है। आप्तवाणी - १ प्रश्नकर्ता: ये भक्त माला फेरते हैं, तब अंत:करण की क्या क्रियाएँ चालू होती हैं? मन में जप करते हैं। बाहर हाथ से मोती फिराते हैं और चित्त फिर अन्य क्रियाओं में लगा होता है। यह क्या है? उस समय कौन-सा मन कार्य करता है? १२८ दादाश्री मन में एक बार नक्की करें कि माला फेरनी है, उसके बाद माला फेरना अपने आप शुरू हो जाता है। हाथ अपना कार्य करते हैं, उस समय अंत:करण में मन और अहंकार कार्यरत होते हैं। चित्त का ठिकाना नहीं होता। चित्त बाहर भटकता होता है। उस समय यह माला मैंने फिराई ऐसा अहंकार करते हैं, जिससे अगले जन्म के लिए बीज डालते हैं। आज जो करता है वह कम्पलीट डिस्चार्ज है। यह डिस्चार्ज हो रहा है और वह उस पर अभिप्राय देता है। जैसा अभिप्राय बंधता है, वैसा फल आता है। अच्छी भावना से अभिप्राय बांधे कि यह माला फेरता हूँ पर चित्त ठिकाने नहीं रहता, चित्त ठिकाने रहे, तो अच्छा, तो अगले जन्म में वैसा मिल आता है और कोई कहे कि यह माला फेरना जल्दी पूरा हो जाए, तो अच्छा। वह ऐसा अभिप्राय बाँधता है, इसलिए उसे अगले जन्म में माला फेरना जल्दी पूरा हो जाए, ऐसा प्राप्त होता है। जैसा अभिप्राय बरतता है वैसा अगले जन्म का बीज बोता है। वहीं पर चार्ज होता है। ये बच्चे जब पढ़ते हैं, तब मन- -बुद्धि-चित्त और अहंकार, चारों हाज़िर रहें, तो एक ही बार पढ़ना पड़े। दोबारा पढ़ना ही नहीं पड़े। पर ये तो पढ़ते यहाँ है और चित्त क्रिकेट में होता है, इसलिए सारा पढ़ा पढ़ाया व्यर्थ जाता है। इस खटिया का एक पाया यदि टूटा हो, तो क्या हो? कैसा परिणाम आए? ऐसा इस अंत:करण का भी है। कवि ने गाया है, 'भीड़मां एकांत एवी स्वप्नमय सृष्टिमां, सूणनारो 'हुं' ज ने गानारो 'हुं' ज छु ।' भीड़ में एकांत ऐसी स्वप्नमयी सृष्टि में, सुननेवाला 'मैं' ही और गानेवाला 'मैं' ही हूँ।
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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