SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० आप्तवाणी-१ आप्तवाणी-१ ११९ उतने मुक्त होते हैं और दूसरी ओर कड़वा पिलानेवाले को रीएक्शन आता है और वह भी बदल जाता है। उसे भी अच्छा रहता है। वह भी समझ जाता है कि मैं कड़वा पिलाता हूँ, यह मेरी कमजोरी है और यह हँसते मुख पी जाता है, वह बहुत शक्तिमान है। हमें यदि कड़वा पीने को कहा हो, तो हम खुद थोड़े ही पीनेवाले हैं? यह तो कोई सामने से जब कड़वा पिलाए, तो वह तो कितना उपकारी है? परोसनेवाली तो माँ कहलाती है। (जो दिया था वह) वापस लिए बगैर कोई चारा नहीं है। नीलकंठ बनने जहर तो पीना ही पड़ेगा। 'हमें' तो 'चंदूभाई' को कह देना है कि तुझे सौ बार यह कड़वा पीना पड़ेगा। बस, फिर उसकी आदत हो जाएगी। बच्चे को कड़वी दवाई जबरदस्ती पिलानी पड़ती है। पर यदि वह समझ जाए कि यह हितकर है, तो फिर जबरदस्ती पिलानी नहीं पड़ती। अपने आप पी लेता है। एक बार नक्की किया कि कोई जो भी कड़वा पिलाएँ उसे पी लेना है, तो फिर पिया जाएगा। मीठा तो पी सकते हैं, पर कड़वा पीना आना चाहिए। कभी न कभी तो पीना ही पड़ेगा न? यह तो फिर मुनाफ़ा है, इसलिए प्रैक्टिस कर लेनी चाहिए न? यदि सब लोगों के बीच में मान भंग हो जाए, तो घाटा हुआ ऐसा लगता है, पर उसमें तो भारी मुनाफ़ा है, यह समझ में आ जाए, तो फिर घाटे जैसा नहीं लगता न? "मैं शुद्धात्मा हूँ' बोलते तो हैं, तो फिर उसी पद में ही रहना है न? उसके लिए तो अहंकार धुलवाना पड़ेगा। कठोर परिश्रम करने का निश्चय करें, तो धुलेगा ही। उसमें पैर क्यों रखते हैं? नक्की करने के बाद दोनों ओर पैर रखना चाहिए क्या? नहीं रख सकते। रूठना कब होता है? जब किसी ने कड़वा परोस दिया तब। हम विधि करते समय बोलते हैं कि मैं शुद्धात्मा हूँ, तो फिर शुद्धात्मा का रक्षण करना चाहिए या और किसी का? अहंकार को खुद नीरस करना बहुत कठिन कार्य है। इसलिए यदि कोई नीरस कर देता हो, तो बहुत अच्छा है। उससे अहंकार नाटकीय रहेगा और अंदर का बहुत सुचारू रूप से चलेगा। यदि यह इतना फायदेमंद है, तो अहंकार को नीरस करने हँसते मुख ही क्यों नहीं पीएँ? अहंकार संपूर्ण नीरस हुआ, तो समझो आत्मा पूर्ण हो गया। इतना नक्की कीजिए कि मुझे अहंकार नीरस करना है, तो फिर वह नीरस होता ही रहेगा। यह कड़वी दवाई यदि रास आ जाए, तो फिर और कोई झंझट ही नहीं रहती न? फिर अब आपको मालम हो गया है कि इसमें हमारा ही मुनाफ़ा है। जितना मीठा लगता है, उतना ही कड़वा भरा पड़ा है। इसलिए पहले कड़वा पचा लो, फिर मीठा सहज ही निकलेगा। उसे पचाना बहुत भारी नहीं पड़ेगा। कड़वी दवाई पच गई, तो बहुत हो गया। फूल लेते समय हर कोई हँसता है, पर पत्थर पड़ें तब? अदीठ तप क्या है? अहंकार तो ज्ञेय स्वरूप है। आप खुद ज्ञाता हैं। ज्ञेय-ज्ञाता का जहाँ संबंध है वहाँ ज्ञेय का रक्षण तो नहीं कर सकते न? एक अहंकार का रक्षण करो, तो सभी ज्ञेयों का रक्षण करना पड़ता है। क्योंकि अनेकों ज्ञेय हैं। अनंत ज्ञेय हैं। अब अदीठ तप करना है। अहंकार आदि में तन्मयाकार नहीं हों, इसका ध्यान रखना है। जागृति रखना ही तप है, अदीठ तप। यह अदीठ तप करना होगा, क्योंकि तन्मयाकार होने की अनादि की आदत है। इससे वह कम होती जाएगी। अहंकार हलका होता जाए, तो समाधान होता जाता है। एक निश्चय किया, तो तप होता ही रहता है। जिस अहंकार में कोई बरकत नहीं आई। यहाँ-वहाँ ठोकरें खाई, हर जगह स्वरूपवान होते हुए भी बदसूरत दिखलाता हो, ऐसा अहंकार एक भिखारी को राजा बनाया हो और गददी पर बैठने के बाद यदि ऐसा कहे कि मैं भिखारी हैं. तो ऐसा कहना ठीक होगा क्या? 'शुद्धात्मा' का पद पाने के बाद दूसरा कुछ भी हमें नहीं होना चाहिए। कड़वे-मीठे अहंकार के पद में से आपको खिसकना है न? फिर
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy