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________________ आप्तवाणी-१ ११३ ११४ आप्तवाणी-१ मन और चित्त थोड़ी देर के लिए एकाग्र रहते हैं। जब तक स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, तब तक संपूर्ण एकाग्रता होती ही नहीं। चित्त को जो डिगाते हैं, वे सभी विषय हैं। बाहर यह जो सब होता है, वे सभी विषय हैं। जिन-जिन वस्तुओं में चित्त गया, वे सभी विषय हैं। पकोड़े खाए, उसमें हर्ज नहीं है पर उसमें चित्त लगा और बार-बार याद आता रहे वह विषय है। ज्ञान के बाहर जो भी जाता है, वह सब विषय ही है। पराई वस्तु में (स्व को छोड़कर) चित्त भटके, तब अगले जन्म के बीज पड़ते हैं। चित्त सदैव फोटो खींचता रहता है। कभी धुंधली तो कभी स्पष्ट । आप जैसी फोटो खींचेंगे वैसी फिल्म उतरेगी और फिर उसे देखनी होगी। इसलिए अच्छी फोटो खींचना। आप अपनी फिल्म फिजूल मत गँवाना। हूँ', ऐसा माने, उसे अहंकार नहीं कहते। 'मैं हूँ' अर्थात् अस्तित्व तो है। अत: 'मैं हूँ', ऐसा कहने का अधिकार तो है, पर 'मैं हूँ', वह किस में हूँ? इसका आपको पता नहीं है। अचतेन में 'मैं' बोलने का अधिकार नहीं है। मैं क्या हूँ?' इसका भान नहीं है। यदि यह भान हो जाए, तो काम हो गया समझो। किसी के चलाए कुछ चलता नहीं है और संसार तो चलता ही रहता है। मात्र अहंकार ही करता है कि मैं चलाता है। जब तक अपने स्वरूप का भान नहीं है तब तक मनुष्य, चाबी भरी हई मोटरों जैसे ही परा अहंकार अंत:करण का चौथा और आख़िरी भाग है. अहंकार। मन और चित्त के साथ मिलकर बुद्धि जो डिसीज़न दे. उसमें आख़िर में हस्ताक्षर करे, वह अहंकार है। जब तक अहंकार के हस्ताक्षर नहीं होते, तब तक कोई कार्य होता ही नहीं। पर बुद्धि जो अहंकार के माध्यम से आनेवाला प्रकाश होने के कारण बुद्धि के डिसीज़न लेने पर अहंकार नियम से ही सहमत हो जाता है और कार्य हो जाता है। ___ 'मैं चंदलाल' उसे ही ज्ञानी सबसे बड़ा और अंतिम अहंकार बताते हैं। उससे सारा संसार खड़ा रहा है। यह अहंकार जाए तभी मोक्ष में जा पाएँगे। यह जीवन किस आधार पर खडा रहा है? पैरों पर या देह पर? नहीं, 'मैं हूँ' इसके ऊपर ही। 'मैं शुद्धात्मा हूँ', इस शुद्ध अहंकार से ही मोक्ष में जाया जा सकता है। शेष सभी जन्मोंजनम के साधन बन जाते त्याग किस का करना है भगवान ने कहा है कि यदि तू मोक्ष में जाना चाहता है, तो कुछ भी त्यागने की ज़रूरत नहीं है। बस अहंकार और ममता, दो ही चीजों का त्याग किया, तो उसमें सबकुछ आ गया। अहंकार यानी 'मैं' और ममता यानी 'मेरा'। 'मैं' और 'मेरा', वे दोनों ही त्यागने हैं। हम ज्ञान देते हैं, आपको स्वरूप का भान करवाते हैं, तब आपके अहंकार और ममता दोनों का त्याग करवाते हैं। एक ओर त्याग करवाया, तो दूसरी ओर क्या ग्रहण करवाते हैं, मालूम है? शुद्धात्मा ग्रहण करवाते हैं। फिर ग्रहणत्याग की कोई झंझट ही नहीं रहती। अहंकार निकालने के लिए ही सारा त्याग करना होता है। हम आपका सारा अहंकार ही ले लेते हैं। फिर अस्तित्व क्या रहा? तो कहे, जहाँ अस्तित्वपन है, वहाँ! मल जगह पर स्थापित किया। किसी एक जगह पर ही अहंकार का अस्तित्वपन होता है, इसलिए हम मूल जगह पर अहंकार बिठा देते हैं। ___आप निश्चय करें कि सुबह पाँच बजे उठना है, तो उठा जाएगा ही। निश्चय यानी अहंकार। अहंकार करने पर क्या नहीं हो सकता? एक बार सहजानंद स्वामी घूमते-घूमते काठियावाड़ पहुंचे। वहाँ एक राजा से मिले। वह कहने लगा, 'मेरे यहाँ एक बहुत बड़े साधु आए हैं। पंद्रह दिन जमीन के अंदर रहते हैं।' इस पर सहजानंद स्वामी ने कहा, 'मेरे सामने अचेतन में 'मैं हूँ' ऐसा माने, वह अहंकार है। यदि चेतन में 'मैं
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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