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________________ आप्तवाणी-१ ९२ आप्तवाणी-१ संपूर्ण ज्ञानप्रकाश के आगे बुद्धि तो सूर्य के सामने दीये के समान है। हमारे पास संपूर्ण ज्ञानप्रकाश है। इसलिए बुद्धि हममें नाम मात्र को भी नहीं है। हम खुद अबुध हैं। हमें एक किनारे पर अबुध पद प्राप्त हुआ ठीक उसके सामनेवाले किनारे पर सर्वज्ञ पद आकर खड़ा हो गया। जो अबुध होता है, वही सर्वज्ञ हो सकता है। बुद्धि के प्रकार बुद्धि के दो प्रकार : (१) सम्यक् बुद्धि (२) विपरीत बुद्धि। (१) सम्यक् बुद्धि अर्थात् सुलटी दिशा में चलती हुई बुद्धि। समकित होने के बाद ही सम्यक् बुद्धि उत्पन्न होती है और वह फिर सुलटा ही दिखाती है। जैसा है वैसा दिखाती है। किसी को ही सम्यक् बुद्धि प्राप्त होती है। (२) विपरीत बुद्धि :- जहाँ सम्यक् बुद्धि का अभाव है, वहाँ विपरीत बुद्धि अवश्य होती ही है। विपरीत बुद्धि यानी मोक्ष के हेतु से विपरीत। बुद्धि का स्वभाव ही है कि वह ऐसा दिखाती है कि जिससे संसार की ही नींव मज़बूत होती है। कभी भी मोक्ष में नहीं जाने देती, वह विपरीत बुद्धि। बुद्धि संसारनुगामी है यानी कि संसार का ही हिताहित रखनेवाली है, मोक्ष का नहीं। कृष्ण भगवान ने बुद्धि को व्यभिचारिणी बताया है। वह तो संसार में ही भटकाया करती है, ऐसा कहा है। बुद्धि की आवश्यकता कब तक? जब तक ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है तब तक आवश्यकता है, मगर वह कितनी? संसार में पत्थर के नीचे उँगली फँस गई हो, तो उसे युक्तिपूर्वक निकाल लेने जितनी ही और फिर से उँगली नहीं फँसे, उतनी ही बुद्धि काम में लेनी चाहिए। पैसे कमाने में या किसी को ठगने हेतु बुद्धि खर्च नहीं करनी चाहिए। वह तो बहुत बड़ा जोखिम है। लक्ष्मी तो पुण्य से आती है, बुद्धि प्रयोग से नहीं आती। इन मिल मालिक और सेठ लोगों में तनिक भी बद्धि नहीं होती है, पर लक्ष्मी ढेरों आया करती है और उनका मुनीम बुद्धि चलाता रहता है। इन्कमटैक्स के ऑफिस में जाएँ, तब साहब की गालियाँ भी मुनीम ही सुनता है, जब कि सेठ तो चैन की नींद सोया होता है। बुद्धि का आशय हर मनुष्य को अपने घर में ही आनंद आता है। झोंपड़ेवालों को बंगले में आनंद नहीं आता और बंगलेवाले को झोंपड़े में आनंद नहीं आता। उसकी वज़ह उनकी बुद्धि का आशय है। जो जैसा बुद्धि के आशय में भर लाया हो, वैसा ही उसे मिलता है। बुद्धि के आशय में जो भरा हो, उसकी दो शाखाएँ निकलती हैं। (१) पापफल और (२) पुण्यफल। बुद्धि के आशय में हर एक का अपना विभाजन होता है, यानी सौ प्रतिशत में से अधिकतर भाग तो मोटर-बंगले, बेटे-बेटियाँ, और बहू के लिए भरे होते हैं। तो वह सब प्राप्त करने में पुण्य खर्च हो जाता है। धर्म के लिए मुश्किल से एक या दो प्रतिशत बुद्धि का आशय होता है। दो चोर चोरी करते हैं। उनमें से एक पकड़ा जाता है और दूसरा आजाद घूमता है। इससे क्या सूचित होता है? चोरी करनी, ऐसा दोनों बुद्धि के आशय में भर लाए थे। पर जो पकड़ा गया, उसका पापफल उदय में आया और खर्च हो गया। जब कि दूसरा छूट गया, उसका पुण्य __ज्यों-ज्यों बुद्धि बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों संताप बढ़ता जाता है। दो साल के बच्चे की माँ मृत्यु शैय्या पर हो, तो उसे कोई असर नहीं होता, हँसता-खेलता रहता है। जब कि बीस साल के बेटे को बहुत संताप होता है। अतः बुद्धि बढ़ने से संताप बढ़ा। इन मज़दूरों को बिलकुल चिंता नहीं होती, वे तो रोजाना आराम से सोते हैं, जब कि सेठ लोग चिंता किया करते हैं। यहाँ तक कि रात को भी चैन से नहीं सोते। ऐसा क्यों? क्योंकि बुद्धि बढ़ी, इसलिए। बुद्धि के प्रतिपक्ष में, संताप काउन्टर वेट में होता ही है। बुद्धि हो वहाँ 'मैं करता हूँ' ऐसा अहंकार होता ही है और इसलिए चिंता रहा करती है। भगवान से वही दूर रखती है।
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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