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________________ आप्तवाणी-१ ८० आप्तवाणी-१ अंकुश लगाने जाओगे, तो वह दुगुनी गति से दौड़ेगा। इसलिए मन पर अंकुश मत लगाना। आज्ञाधीन मन हो और अंकुश रखें, तो चलेगा। आज्ञाधीन न हो, तो उसे दौड़ाते रहना, ताकि थक जाए, हाँफने लगे, हमें क्या? लगाम हमारे हाथ में है न? तब लोग क्या कहते हैं? भाड़ में जाए मन, नींद नहीं आएगी। फिर सोने के लिए मन को दबाते रहेंगे। अंकुशित, नियंत्रित किया करेंगे। अरे! नींद एक ओर रख न! यह तो मजे की बात है, मन पर सवारी करने का मौका है, ऐसा मौका फिर कब मिलेगा? ज्ञेय ही नहीं रहे, तो तू ज्ञाता किस का? ठेठ मोक्ष में जाने के अंतिम समय तक मन की फिल्म दिखाई देती है और उसकी समाप्ति पर संपूर्ण मुक्ति होती है, निर्वाण होता है। अंधेरे में अकेले निकलने पर यदि चोर के विचार आएँ, तो समझ लेना कि आज नहीं तो किसी और दिन लुटनेवाले हैं। यदि विचार ही नहीं आते, तो समझ लेना कि लटनेवाले नहीं हैं। विचारों का आना फोरकास्ट है। वह माल अंदर भरा है, इसलिए विचार के स्वरूप में प्रकट होता है। ऐसे विचार का आना एक एविडन्स (संयोग) है। हमें तो देखना और जानना है और वहाँ विशेष जागृत रहना है। संसार में मन का विज्ञान खास समझने जैसा है। हर कोई मनोलय करने जाता है। मन का नाश नहीं करना है। मन का नाश हो, तो मेन्टल हो जाएगा। मन में अच्छा ही आए, ऐसा नहीं होना चाहिए। जो आए सो भले ही आए। मन से हमें क्या कहना है? तू भों-भों बजाना चाहे, तो वह बजा और पिपाड़ी बजाना चाहे, तो वह बजा। कार्य मन को रोकनेवाले या बदलनेवाले हम कौन होते हैं? कोई बाप भी उसे बदल नहीं सकता क्यों कि वह तो इफेक्ट (परिणाम) है। उससे डरना क्या? वह बाजा नहीं बजाएगा, तो हम सुनेंगे क्या? हमें एडजस्टमेन्ट लेना है। जिस ओर का गाना चाहो, उस ओर का गाओ, हमें तो हर ओर का शौक है। ज्ञान होने से पहले अच्छे का शौक था, इसलिए और कुछ सुनना नहीं भाता था। अब तो हम तेरे साथ एडजस्ट हो गए हैं, इसलिए तू जो बजाना चाहे बजा। अब राग-द्वेष करें वे और कोई होंगे, हम नहीं। मन पर सवार हो जाइए हमें ज्ञान नहीं था, तब भी हमें विचार आने लगे, तो हम समझ जाते थे कि आज ये सोने नहीं देंगे। तब मैं मन से कहता, 'दौड़, दौड़! बहुत अच्छे, बहुत अच्छे, दौड़ता रह। तू घोड़ा और मैं सवार। तू जिस राह चलना चाहे, चल। तू है और हम हैं।' ऐसे ही सुबह के सात बज जाते थे। इस संसार का नियम क्या है? जिस पर रोक लगाएँ, जिस पर कंट्रोल करें, वह ऊपर चढ़ बैठता है। जैसे शक्कर का कंट्रोल करें, तो शक्कर की कीमत बढ़ जाएगी। मन का भी यही हाल है। मन पर यदि हमने तो मन पर सवारी करी, तभी तो यह अविरोधाभास ज्ञान उत्पन्न हुआ है। मन तो संसार सागर की नैया है। पर लोग मन को फ्रेक्चर करके निर्विचार भूमिका कर देते हैं। मगर निर्विचार पद कभी भी प्राप्त होनेवाला नहीं है। निर्विचार हुआ, तो मानो पत्थर जैसा ही हो गया। लोग निर्विचार पद किसे कहते हैं? जिन विषयों में मन बहुत उछल-कूद करता हो, उन विषयों को दबा देते हैं, फल स्वरूप मन दूसरी ओर उछल-कूद करने लगेगा। निर्विचार पद तो किसे कहते हैं? कि समय-समय पर आनेवाले विचारों को, खुद शुद्धात्मा दशा में स्थित रहकर, पूर्णरूप से अलग होकर देखे और जाने। यही भगवान की भाषा का निर्विचारी पद है। मन को वश करने लंगोटी बाँधकर, सब छोड़कर, घर-संसार, बीवी-बच्चों, सबको छोड़कर चले गए। यहाँ लोकदर्शन छोड़कर जंगल में जंगली जानवरों के और पेड़-पौधों के दर्शन करने गए। पर वे मन तो साथ ले गए। वह सभी करनेवाला है। गाय-बकरी पालेगा, गुलाब का पौधा लगाएगा, झोंपड़ी बाँधेगा। मन का तो स्वभाव ही ऐसा है कि जहाँ जाए वहाँ संसार खड़ा कर दे। हिमालय में जाए, तो वहाँ भी संसार खड़ा करे। अब ऐसे मन को आप कैसे वश में करेंगे? 'मन को वश करना' तो सबसे बड़ा विरोधाभास है। मन के स्वभाव को वश में कर सकें ऐसा नहीं है। मगर योगी आदि होते हैं, जो पूर्व जन्म की ऐसी ग्रंथि लेकर आए होते हैं, इसलिए उन्हें ऐसा लगता है कि मन वश में आ गया है।
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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