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________________ आप्तवाणी-१ २५३ २५४ आप्तवाणी-१ जैसी बिलीफ़ होगी, वैसा ज्ञान मिलता है और वैसा ही बर्ताव हो जाता है। बर्ताव करना नहीं पड़ता है। क्रिया, आत्मा नहीं है। आत्मा के अपने गुणधर्म हैं। पर आत्मा की सक्रियता नहीं है। जैसी-जैसी कल्पना, वैसा-वैसा अनुभव होता है। दुःख-सुख कोई वस्तु नहीं है, कल्पना है। आत्मा की इतनी बड़ी शक्ति है, पर खुद निर्लेप है। आत्मा की उपस्थिति से अन्य सभी की सक्रियता दिखती है। भगवान क्या कहते हैं कि जो सारी क्रियाएँ की गई हैं, उनका फल आएगा। जिस क्रिया का फल नहीं आता, उस क्रिया से मोक्ष! परम विनय से मोक्ष, उसके अलावा सब जंजाल है, और उसका अंत नहीं आता है। गुफा में होगा, तो गुफा का जंजाल और संसार में हो, तो संसार का जंजाल, इस प्रकार जहाँ होगा, वहाँ का जंजाल आ घुसेगा। लोग कहते हैं कि क्रिया कीजिए पर बिना ज्ञान के क्रिया कैसी? क्रिया तो ज्ञान की दासी है। भगवान ने कहा 'ज्ञानक्रिया करो, ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्ष।' 'ज्ञानक्रिया' अर्थात् क्या? खुद के स्वरूप में ही रहना और जानना। दर्शन क्रिया में देखना और ज्ञानक्रिया में जानना। देखना और जानना, यही आत्मा की क्रिया है। जब कि आत्मा के अलावा अन्य किसी तत्त्व में ज्ञान-दर्शन-क्रिया नहीं होती है। अन्य सभी क्रियाएँ होती नहीं है। वह तो केवल देखता है और जानता है। जो जानता है, वह करता नहीं है और जो करता है, वह जानता नहीं है। जो करनेवाला होता है, वह जाननेवाला नहीं होता और जो जाननेवाला होता है, वह करनेवाला नहीं होता। इस इंजन से पूछे, तो वह कहेगा कि नहीं भैया मैं कुछ नहीं जानता। यह इलैक्ट्रिक बल्ब लाइट देता है, पर वह जानता नहीं है। समुद्र में से नाव आपको किनारे पर लाई या आप नाव को लाए? नाव लाई। करनेवाली नाव, मगर वह खुद नहीं जानती। ऐसे 'जाननेवाली' और 'करनेवाली' दोनों धाराएँ अलग होती हैं। पर यदि 'जो करे वह जाने' कहा, तो दोनों धाराएँ जो अलग बहती थीं, वे एक हो जाती हैं और इसी कारण स्वाद भी बेस्वाद कढ़ी जैसा लगता है न? कर्ताधारा और ज्ञाताधारा दोनों अलग ही हैं। जो करता है, वह जानता नहीं और जो जानता है, वह करता नहीं। क्योंकि कर्तापन में एविडन्स चाहिए, जब कि ज्ञातापन में एविडन्स की ज़रूरत नहीं होती। कुछ भी करना पड़े, उसमें सांयोगिक प्रमाण चाहिए, यों ही नहीं होता। प्रज्ञा दादाश्री : आत्मा देह से अलग ही होता होगा न? प्रश्नकर्ता : अलग ही है। दादाश्री : तो यह देह तू चलाता है, वह किसी की मदद से चलता है? यह तो 'व्यवस्थित' शक्ति की मदद से सब चलता है। यह सब करती है, वह 'व्यवस्थित' शक्ति करती है। उसमें आत्मा कुछ भी करता प्रज्ञा आत्मा का डायरेक्ट प्रकाश है, जब कि बुद्धि इनडायरेक्ट प्रकाश है। मिडियम श्रु आनेवाला प्रकाश है। केवलज्ञान स्वरूप के अंश स्वरूप को हम प्रज्ञा कहते हैं। प्रज्ञा ज्ञान पर्याय है। जैसे-जैसे आवरण हटते जाते हैं, वैसे-वैसे प्रकाश बढ़ता जाता है और केवलज्ञान बढ़ता जाता है। संपूर्ण केवलज्ञान तो ३६० अंश पूरे हों, तब होता है। जैसे एक मटके में हजार वॉट का बल्ब लगाया हो और मटके का मँह बंद किया हो, तो प्रकाश मिलेगा क्या? नहीं मिलता। ऐसा इस मूढ़ात्मा का है। भीतर तो अनंत प्रकाश है, पर आवृत होने से घोर अंधकार
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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