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________________ आप्तवाणी-१ २४३ २४४ आप्तवाणी-१ प्रकृति-ज्ञान को जानो। चंचल भाग जो-जो है, वह सारा ही प्रकृति भाग है, उसे तू जान। चंचल भाग में क्या-क्या आता है? पाँच इन्द्रियाँ। आँख, नहीं देखना हो तब भी देख लेती है। बांद्रा की खाडी आए, तब नाक, नहीं सूंघना हो, तो भी सूंघ लेती है। देह चंचल किस प्रकार है? सामने से मोटर टकराने आए, तो फट से एक ओर हो जाती है। उस समय मन-बन कुछ नहीं करता। मन चंचल, चित्त चंचल, इसलिए बैठे हैं यहाँ, और चित्त स्टेशन जा पहुँचता है। बुद्धि भी चंचल। कोई कहे वहाँ नहीं देखना चाहिए, तो भी बुद्धि झट से दिखा देती है। और यदि कोई ऐसा कहे कि चंदूभाई आइए, तो छाती फूल जाती है, वह अहंकार की चंचलता। इसलिए चंचल भाग को पूर्ण रूप से जान लिया, तो शेष रहा अचंचल भाग, वही आत्मा। दया, मान, अहंकार, शोक-हर्ष, सुखदुःख ये सब द्वन्द्व गुण हैं। वे सब प्रकृति के ही गुण हैं। प्रकृति धर्म है। प्रकृति अर्थात् चंचल विभाग, एक्टिव विभाग और आत्मा पुरुष, जो अचंचल है। यदि पुरुष को जानें, तो आत्मज्ञान होता है और तभी परमात्मा हो सकते हैं। पर कुछ रह गया, इसलिए फिर मुझसे कहा, 'दादाजी, पर मैं रोजाना चार घंटे योगसाधना करता हूँ न?' मैंने पूछा, 'किस की योग साधना करते हो? जाने हुए की या अनजाने की?' आत्मा को तो जाना नहीं है, देह को ही जाना है। अत: देह को जानकर देह की साधना की। किसी अनजाने आदमी के मुँह का ध्यान कर सकते हैं? नहीं कर सकते। आत्मा से अनजान, तो आत्मा का ध्यान कैसे करें? यह किया, वह तो देह साधना हुई, उसमें आत्मा के ऊपर क्या उपकार किया? आत्मयोग उत्पन्न हो, तभी मोक्ष होता है। देहयोग से तो संसार फल मिलता है। ये हमारे महात्मा, सभी आत्मयोगी हैं और हम आत्मयोगेश्वर योग-एकाग्रता एक इंजिनीयर मेरे पास आए थे। उन्होंने मुझसे कहा, 'दादाजी, मुझे मोक्ष साधन चाहिए।' मैंने उनसे पछा, 'आज तक आपने कौन-सा साधन किया है?' उसने कहा, 'मैं एकाग्रता करता हूँ।' मैंने उनसे कहा, 'जो व्यग्रता का रोगी हो, वह उस पर एकाग्रता की दवाई लगाता है।' एकाग्रता कौन करेगा? जिसे व्यग्रता का रोग है, वह। इन मज़दूरों को एकाग्रता क्यों नहीं करनी पड़ती? क्योंकि उन्हें व्यग्रता नहीं है, इसलिए। हम ज्ञानी पुरुष भी एकाग्रता नहीं करते। हमें व्यग्रता नाम मात्र की भी नहीं होती। यह तो अगन होती है, उस पर ठंड के लिए दवाई लगाते हैं, उसमें आत्मा पर क्या उपकार किया आपने? एक भी चिंता कम हुई? भाई ब्रिलियन्ट थे, इसलिए उसने कहा, 'दादाजी, मेरी बुद्धि फ्रेक्चर हो गई है। आपने जो कहा वह मुझे एकदम एक्सेप्ट हो गया है, वह रोग ही निकल गया मेरा तो।' योग अर्थात् टु जोइन, युज धातु पर से बना है। जाने हुए का ही योग होता है। देह का योग, वाणी का योग, तो कोई मन का भी योग करता है। ऐसे योग से भौतिक शक्ति बढ़ती है, पर मोक्ष नहीं होता है। आत्मयोग से ही मोक्ष होता है। इस संसार में मनोयोगी होते हैं, बुद्धियोगी हैं, उलटी-सुलटी बुद्धिवाले, कितने ही सम्यक् बुद्धि तो कितने विपरीत बुद्धिवाले होते हैं। देहयोगी-तपस्वी और वचनयोगी-वकील आदि तरह-तरह के योगी पड़े हैं। आत्मयोग वही एक सच्चा योग है, बाकी सब अयोग हैं। आत्मयोग में बैठे हों, तब मन फाइलें लाए, तब उसे कहना कि चला जा! नहीं तो तेरा अपमान करूँगा, अभी मत आना, बाद में आना। आत्मयोग के ध्यान में रहोगे, तब अनुभूति होती है और वह अनभूति कभी नहीं जाती। स्वरूप के भान के अलावा जो-जो जानते हो वह अज्ञान है। स्वरूप के ज्ञान के बाद जो-जो जानते हो, वही जाना हुआ कहलाता है। आत्मयोग हुआ, वही स्वरूप का भान हुआ। ज्ञानयोग ही सिद्धांत है। त्रियोग (मन-वचनकाया का योग), वह असिद्धांत है। निर्विकल्प समाधि योगमार्ग की समाधि में मन-वचन-काया की जलन हो, तब योग
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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