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________________ आप्तवाणी-१ १९७ १९८ आप्तवाणी-१ _ 'मैं चंदूभाई हूँ', वही स्वच्छंद। वह गया, तो फिर तप-त्याग या शास्त्र की भी जरूरत नहीं है। स्वच्छंदता थी, इसलिए अभी भी ठिकाना नहीं पड़ा। स्वच्छंदता छूटे, तो घंटेभर में मोक्ष हो जाए। स्वच्छंद अर्थात् अंधा छंद। 'मैं चंदूभाई' वही स्वच्छंद। उससे तो अनंत जन्मों तक ठिकाना नहीं पड़ता। स्वच्छंदता जाए, तो काम होता है। स्वच्छंद अर्थात् अपने आप ही दवाई बना लेनी। अपने आप ही रोग का निदान करना, खुद ही दवाई बनाना और खुद ही प्रेस्क्राइब करना। अरे, मोक्षमार्ग की दवाई भी खुद बनाई? तो भाई! पोइजन हो गया तेरे लिए। इसलिए ही तो प्रशंसा पर राग होता है और बुराई करने पर द्वेष होता है। धर्म में, जप में, तप में, शास्त्र समझने में स्वच्छंद नहीं चलता। साधन करें, तो वह स्वच्छंद से किया हुआ हो तो नहीं चलता। अपनी स्व-मति की कल्पना से मत करना। यह तो खुद ही गुनहगार, खुद ही वकील और खुद ही न्यायाधीश. इस तरह चलता है। स्वच्छंदता अर्थात् स्व-मति कल्पना! अरे ! फिर मर जाओगे। स्वच्छंदता तो कहाँ से कहाँ ले जाकर मार डालेगी। अपनी मनमानी ही करे, वह स्वच्छंदता। स्वच्छंदता रुके, तो काम हो। अपनी होशियारी से धर्म और ध्यान किए, इसलिए कोई परिणाम नहीं आया। अपनी ही मति अनुसार चलने पर अनंत, अनंत जन्मों के लिए संसार का बंधन बँधेगा, इससे तो 'इस' स्टेशन पर नहीं आना अच्छा। जहाँ पर हो, वहीं बैठे रहो। वर्ना 'इस' (धर्म के) स्टेशन पर आने के बाद, यदि स्वच्छंदता रही और अपनी स्व-बुद्धि से चलोगे, तो अनंतानंत संसार में भटकते रहोगे। स्व-मति से नहीं चल सकते, ऐसा यह संसार है। अपने से पाँच अंश बड़े को खोज निकालना और उनके कहे अनुसार चलना, कब तक? जब तक ज्ञानी पुरुष नहीं मिलते तब तक। और कुछ मत खोज, मात्र एक सत्पुरुष को खोजकर, उनके चरणकमल में सर्वभाव अर्पण करके, उनके कहे अनुसार चलता जा। फिर यदि मोक्ष नहीं मिले, तो मेरे पास से लेना।' ऐसा श्रीमद् राजचंद्रजी कहा करते थे। आज तो धर्म स्वच्छंदता से ही करते हैं। कितने ही सालों से आप किसी की आराधना करते आए हैं, पर फिर भी यदि 'चंदूभाई' पुकारा कि तुरंत ही कान धरते हो कि नहीं? इसके उपरांत चंदूभाई को ऐसावैसा कह दिया, तो तुरंत ही राग-द्वेष होते हैं। गुरुजी की इतनी आराधना की और यदि राग-द्वेष नहीं जाते, तो वह किस काम की? फिर भी यदि आपकी आराधना मोक्ष हेतु है, तो कभी न कभी ज्ञानी पुरुष मिल ही जाएँगे। स्वच्छंदता से जरा भी नहीं चल सकते। अनजाने में अग्नि में हाथ डालें, तो जल जाते हैं या नहीं? अनजाने में किए गए कर्मों का फल मिलेगा ही। इसलिए पहले तू जान ले कि तू कौन है? और यह सब क्या स्वच्छंद जाए, तो खुद का कल्याण खुद कर सकता है। पर खुद स्वच्छंद निकालने जाए, तो निकलता नहीं है न? स्वच्छंद को पहचानना तो होगा न? तू जो कुछ करता है वह स्वच्छंद ही है। कृपालुदेव (श्रीमद् राजचंद्रजी) ने कहा था कि सजीवन मूर्ति के लक्ष्य के बिना जो कुछ भी करने में आता है, वह जीव के लिए बंधन है, जो कुछ भी करे वह बंधन है, वही स्वच्छंदता है। बाल बराबर किया, तो भी स्वच्छंद ही है। व्याख्यान में जाए या साधु हो जाए, तप-त्याग करके शास्त्र पठन करे, वह सबकुछ स्वच्छंदता ही है। तू जो भी क्रिया करता है, वह ज्ञानी पुरुष से पूछकर करना, वर्ना वह स्वच्छंद-क्रिया है। उससे तो बंधन में पड़ते हैं। स्वच्छंद नामक दोष जाए, फिर बाद में 'दादा' का छंद लगेगा। स्वच्छंद जाए, तो स्वरूपज्ञान होता है। स्वच्छंदता कम हो, ऐसा मनुष्य कैसा होता है? जैसे मोड़ना चाहो मुड़ जाता है, फ्लेक्सिबल होता है। उसे मोक्षमार्ग मिल जाता है। स्वच्छंदी को मोड़ें वैसे नहीं मुड़ता।
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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