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________________ आप्तवाणी-१ १८१ १८२ आप्तवाणी-१ दुतकारने से ही संसार खड़ा है। आसक्ति तो देह का गुण है, परमाणुओं का गुण है। वह कैसा है? चुंबक और लोहे जैसा संबंध है। देह को अनुकूल हो ऐसे परमाणु में देह खिंचती है, वह आसक्ति है। आसक्ति तो एबव नोर्मल और बीलो नोर्मल भी हो सकती है। प्रेम नोर्मालिटी में होता है, एक समान ही रहता हैं, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन होता ही नहीं है। आसक्ति तो जड़ की आसक्ति है। चेतन की तो नाम मात्र की भी नहीं है। तो उसका आग्रह हो जाता है, और डनलप के गद्दे पर सोता हो, तो उसका आग्रह हो जाता है। चटाई पर सोने के आग्रही को यदि गद्दे पर सुलाएँ, तो उसे नींद नहीं आती। आग्रह ही विष है, और निराग्रह ही अमृत है। जब तक निराग्रहता उत्पन्न नहीं होती, तब तक संसार का प्रेम संपादन नहीं होता। शुद्ध प्रेम निराग्रहता से प्रकट होता है, और शुद्ध प्रेम ही परमेश्वर है। बिना पहचान का प्रेम नाशवंत है, और आज जितनी पहचान है वह सब प्राकृत हैं। प्राकृत गुणों को लेकर जो प्रेम होता है, ऐसे प्रेम को क्या करना है? शुद्ध प्रेम से सारे दरवाजे खुलते हैं। गुरु के साथ के प्रेम से क्या नहीं मिलता? मनुष्य तो सुंदर हों, तब भी अहंकार से बदसूरत दिखाई देते हैं। सुंदर कब दिखेंगे? तब कहे, प्रेमात्मा हो तब। तब तो बदसूरत भी खूबसूरत दिखाई देते हैं। शुद्ध प्रेम प्रकट हो, तब ही खुबसूरत दिखने लगते हैं। संसार के लोगों को क्या चाहिए? मुक्त प्रेम, जिसमें स्वार्थ की गंध या किसी प्रकार की अवसरवादिता नहीं हो। संसार में इन झगड़ों के कारण ही आसक्ति होती है। इस संसार में झगड़ा तो आसक्ति का विटामिन है। झगड़ा नहीं हो, तो वीतराग हो सकते हैं। भगवान कहते हैं कि द्वेष परिषह उपकारी है। प्रेम परिषह कभी नहीं छूटता। सारा संसार प्रेम परिषह में फँसा है। इसलिए हर किसी को दूर से ही 'जय श्री कृष्ण' कहकर उनसे छूट जाना। किसी के लिए प्रेम मत रखना और किसी के प्रेम में फँसना नहीं। प्रेम को दुतकारकर भी मोक्ष में नहीं जा सकते, इसलिए सावधान रहना। मोक्ष में जाना हो, तो विरोधियों का तो उपकार मानना। प्रेम करते हैं, वे ही बंधन में डालते हैं, जब कि विरोधी उपकारी, हैल्पिंग हो जाते हैं। जिसने हम पर प्रेम उंडेला है, उसे दुःख न लगे, ऐसा करके छूट जाना, क्योंकि प्रेम को व्यवहार में अभेदता रहे, उसका भी कारण होता है। वह तो परमाणु और आसक्ति के गुण हैं, पर उसमें किस क्षण क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता। जब तक परमाणु मेल खाते हों तब तक आकर्षण रहता है, इसलिए अभेदता रहती है। परमाणु मेल नहीं खाते. तब विकर्षण होता है. और बैर होता है। अतः जहाँ आसक्ति होगी, वहाँ बैर होगा ही। आसक्ति में हिताहित का भान नहीं होता। प्रेम में संपूर्ण हिताहित का भान होता है। यह तो परमाणुओं का साइन्स है। उसमें आत्मा को कोई लेनादेना नहीं है। पर लोग तो भ्रांति से परमाणु के खिंचाव को मानते हैं कि मैं खिंच गया। आत्मा खिंचता ही नहीं। आत्मा जिस-जिस में तन्मयाकार नहीं होता, उसका उसे त्याग बरतता है, ऐसा कहते हैं। कर्तृत्व का अभिमान ही आसक्ति है। हमें तो देह की आसक्ति और आत्मा की अनासक्ति होती है। नैचुरल लॉ - भुगते उसीकी भूल इस संसार के न्यायाधीश तो जगह-जगह होते हैं, पर कर्म जगत् के कुदरती न्यायाधीश तो एक ही हैं, 'भुगते उसीकी भूल'। यह एक ही न्याय है, उसीसे सारा संसार चल रहा है और भ्रांति के न्याय से संसार पूरा खड़ा है।
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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