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________________ ८० किरातार्जुनीयम् इत्यमरः । वार्तामात्रवादिनो वयं, न तु कर्तव्योपदेशसमर्थाः; अतस्त्वयैत्र निर्धाय कार्यमिति भावः । सामान्येन विशेषसमर्थनादर्थान्तरन्यासः ।। २५ ॥ इतौरयित्वा गिरमात्तसक्रिय गतेऽथ पत्यौ वनसन्निवासिनाम् । प्रविश्य कृष्णासदनं महीभुजा तदाचचक्षेऽनुजसन्निधौ वचः ॥२६॥ अ०-वनसन्निवासिनां पत्यौ इति गिरम् ईरयित्वा आत्तसक्रिये गते (सति) अथ महीभुजा कृष्णासदनं प्रविश्य अनुजसन्निधौ तत् वचः आचचक्षे। श-वनसन्निवासिनां पत्यौ = वनवासियों (वनचरों, वनेचरों, किरातों) के स्वामी ( उस गुप्तचर किरात) के । इति = इस प्रकार की । गिरम् = वाणी (वचन, संदेश) को । ईरयित्वा = कह कर | आत्तसक्रिये = सत्कार (पुरस्काार पारितोषिक ) प्राप्त कर । गते = (अपने घर) चले जाने पर | अथ = उसके बाद, तदनन्तर । महीभुजा = राजा (युधिष्ठिर) के द्वारा | कृष्णासदनं = द्रौपदी के भवन में । प्रविश्य = प्रवेश करके । अनुजसन्निधौ = (भीमादि) भाइयों के पास ( समक्ष, सम्मुख, सामने )। तत् वचः = (वनेचर के द्वारा कहा गया) वह वचन ( संदेश, वातें)। आचचक्षे = कहा गया। (अथवा-महीभुजा सदनं प्रविश्य अनुजसन्निधौ तद् वचः कृष्णा आचचक्षे = राजा युधिष्ठिर के द्वारा भवन में प्रवेश करके भाइयों के समक्ष यह वचन द्रौपदी से कहा गया)। अनु०-वनवासियों के स्वामी ( उस गुप्तचर किरात) के इस प्रकार के वचन को कहकर और पुरस्कार प्राप्त कर अपने घर चले जाने के अनन्तर राजा युधिष्ठिर के द्वारा द्रौपदी के भवन में प्रवेश करके (भीमादि) भाइयों के सामने वह (गुप्तचरप्रोक्त) वचन कहा गया (अथवा-युधिष्ठिर के द्वारा भवन में प्रविष्ट होकर भाइयों के समक्ष वह वचन द्रौपदी से कहा गया)। सं० व्या०-वनेचराणामधिपः सः गुप्तचरः किरातः दुर्योधनस्य सम्पूर्णवृत्तान्तमुक्त्वा युधिष्ठिरात् समुचितं पुरस्कारं च गृहीत्वा स्वगृहं गतः । तदनन्तरं राजा युधिष्ठिरः द्रौपदीभवनं प्रविश्य भीमादीनां समक्षं वनेचरेणोक्तं तत् सर्व
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
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