SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमः सर्गः २५. टि०-(१) नीतिवाक्यामृत में बतलाया गया है कि गुतचर (चार ) में ये चार गुण अनिवार्य रूप से होने चाहिए-(क) चतुरता (ख) स्फूर्ति (चुस्ती) (ग) सत्यवादिता (घ) तर्क ('अमौढ्यममान्द्यममृषाभापित्वमभ्यूहकत्वं चेति चारगुणाः' नीतिवाक्यामृत)। प्रस्तुत श्लोक में युधिष्ठिर के गुमचर (किरात) की सत्यवादिता का प्रतिपादन किया गया है। कटु सत्य का कथन करने में उसे तनिक भी हिचक नहीं है। स्वामी के मङ्गल (हित) का सम्पादन करना उसका परम् प्रयोजन है। स्वामी के लिए वह सत्य का कथन करता है, भले ही वह सत्य स्वामी को कटु प्रतीत हो (२) महाकवि भरवि संस्कृत साहित्य में अर्थगाम्मीर्य के लिए प्रसिद्ध है। 'नहि प्रियं. प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिणः' इस सूक्ति में महाकवि ने सार्वभौमिक रात्य (Universal truth) का निरूपण किया है। इस सूक्ति की तुलना किरात ११४ मे उक्त सूक्ति 'हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः' के साथ कीजिए। (३) 'महीं महीभुजे' में व्यञ्जनसमूह की एक बार आवृत्ति होने के कारण छेकानुप्रास है। सामान्य (न हि प्रियं हितैषिणः ) के द्वारा विशेष (पूर्व में उक्त विशेष कथन) का समर्थन होने के कारण यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार भी है । घण्टापथः कृतप्रणामस्येति । कृतप्रणामस्य तत्कालोचितत्वात् कृतनमस्कारस्य । सपत्नेन रिपुणा दुर्योधनेन 'रिपो वैरिसपत्नारिद्विषवेषणदुहृदः' इत्यमरः । जितां स्यायत्तीकृतां महीं महीभुजे युधिष्ठिराय । क्रियाग्रहणात् सम्प्रदानत्वम् । निवेदयिष्यतः ज्ञापयिष्यतः। 'लूटः सद्वा' इति शतृप्रत्ययः । तस्य वनेचरस्य । मनो न किव्यथे। कथमीहगप्रियं राज्ञे विज्ञापयामीति मनसि न चचालेत्यर्थः। 'व्यथभयचलनयोः' इति धातोलिट् । उक्तमर्थमर्थान्तरत्यासेन समर्थयते-न हीति | हि यस्मात् । हितमिच्छन्तीति हितैषिणः स्वामिहितार्थिनः पुरुषाः मृषा मिथ्याभूतं प्रिय प्रवक्तुं नेच्छन्ति अन्यथा कार्यविघातकतया स्वामिद्रोहिणः स्पुरिति भावः । 'अमौन्यममान्द्यममृषाभाषित्वमभ्यूहकत्वं चेति चारगुणाः' इति नीतिवाक्यामृते ॥ २ ॥ द्विपां विघाताय विधातुमिच्छतो रहस्यनुज्ञामधिगम्य भूभृतः । स सौष्ठवौदार्यविशेषशालिनी विनिश्चितार्थामिति वाचमाददे ॥३॥
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy