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________________ भूमिका शास्त्रों में अपने पाडित्य के प्रदर्शन का उन्होंने बड़ा भारी प्रयत्न किया है । शाब्दिक चमत्कार और अलंकारों की साजसज्जा का उन्हें विशेष चाव है । वे अनावश्यक अतिशय अलंकार-प्रियता का प्रदर्शन करते हैं। इससे उनके काव्य में कृत्रिमता आ गई है। उनका पाडित्य-प्रदर्शन ऐसा दोष है जिसने उनके काव्य के हृदयपक्ष (भावनापक्ष ) को दुर्बल बना दिया है। उनका भावनापक्ष दुर्बल तथा कलापक्ष प्रबल (प्रधान ] हो गया है। इन्होंने अपने पाण्डित्य-प्रदर्शन के पीछे पाठक की रुचि का कोई ध्यान नहीं रखा है। काव्य की दृष्टि से उनका चित्रबन्ध-निबन्धन अधम (नीच ) काव्य की श्रेणी में आता है । भारवि के द्वारा किए गए दीर्घ और विशालकाय वर्णन भी सदोष हैं। उनके अनावश्यक विशाल वर्णन पाठक के धैर्य को समाप्त कर देते हैं और खटकने लगते हैं । कालिदास के महाकाव्यों में भी कथाप्रवाह मन्थर गति से चलता है किन्तु उसमें अवरोध दृष्टिगोचर नहीं होता । पाठक की मनोवृत्ति के अनुकूल कथा धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। कथा के बीच में यदि कालिदास प्रकृति आदि के वर्णनों का समावेश करते हैं तो वे कथाप्रसङ्ग को भी भूल नहीं जाते । भारवि में ऐसी बात नहीं है । किसी विषय को लेकर जब तक वे अपने सम्पूर्ण मस्तिष्क को खाली नहीं कर लेते हैं तब तक वे आगे नहीं बढ़ते हैं। अलंकारों, कल्पनाओं और विचित्र शब्दों की झड़ी लगा देते हैं। इससे पाठक ऊब जाता है । किरातार्जुनीय में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ कवि का दीर्घ और अनावश्यक वर्णन खटकता है । हिमालय, ऋतुओं, अप्सराओं इत्यादि के विस्तृत वर्णन उपर्युक्त तथ्य को भली भाँति प्रमाणित कर देते हैं । ___उपर्युक्त दोषों के होते हुए भी भारवि का महाकाव्य अत्यन्त उदात्त, पर्याप्त रूप में रोचक तथा महनीय गुणों का विशाल आगार है।
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
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