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________________ किरातार्जुनीयम् में मिलते हैं, परन्तु यह मानना होगा कि भारवि का यही अर्थ-गौरव उनकी दुर्बलता भी है। इसी कारण उनका काव्य कुछ कटिन हो गया है। आरम्भ के तीन सर्ग विशेष कठिन हैं, इसलिए ये 'पाषाणत्रय' के नाम से प्रसिद्ध है। तथापि उनका अर्थ-गाम्भीर्य उनके काव्य की एक प्रभाव डालने वाली विशेषता है जिसके कारण उनका काव्य पाठकों को अपनी ओर आकर्पित करने में सफल होता है। परिमित (अल्प) शब्दों के द्वारा अपरिमित अर्थ को प्रकाशित करने का जो गुण भारवि की मुख्य विशेषता है वह मुख्यतः उनकी सूक्तियो के कारण है। उनके काव्य में शाश्वत सत्य से ओत-प्रोत सूक्तियों का बाहुल्य है। महाकवि ने इन सूक्तियों में जीवनोपयोगी बातों, राजनीति-शास्त्र के गूढ रहत्यों, लोकन्यवहार के बहुमूल्य तथ्यों एवं जीवन के गम्भीर अनुभवों को प्रस्तुत किया है। अर्थ-गौरव से भरी हुई उनन्नी कुछ सूक्तियाँ ये हैं-"हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः", "गुणाः प्रियत्वेऽधिकृता न संस्ता", "विमलं कलुपीभवच्चेतः कथयत्येव हितैपिणं रिपुं वा", "किमिव बस्ति दुरात्मनामलंध्यम्", "सहता विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदा पदम्", "सुदुर्लभाः सर्वमनारमा गिरः', "गुरुतां नयन्ति हि गुणाः न संहतिः" इत्यादि । * इस प्रसङ्ग में प्रथम सर्ग की सभी सूक्तियों को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है१-न हि प्रियं प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिणः । २ २-हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः। ४ ३-सदानुकूलेपु हि कुर्वते रतिं नृपेष्वमात्येपु च सर्वसम्पदः । ५ ४-दरं विरोधोऽपि स्मं महात्मभिः।८ ५-गुणानुरोधेन विना न सक्रिया । १२ ६-अहो दुरन्ता वलवद्विरोधिता । २३ ७-प्रवृत्तिसाराः खलु मादृशां गिरः । २५ ८-प्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः । ३० ६-अवन्ध्यकोपस्य विहन्तुगपदां भवन्ति वश्याः स्वयमेव देहिनः । ३३
SR No.009565
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorMardi Mahakavi
AuthorVirendrakumar Sharma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year
Total Pages126
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 MB
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