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________________ अभिज्ञानशाकुन्तलकी इस उक्तिको लक्ष्य कर कहा गया है। इस प्रकार दण्डी कालिदासके परवर्ती प्रतीत होते हैं। इसी तरह दण्डीने काव्यादर्श में “सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धावि यन्मयम् ।” (१-३४) इस प्रकार प्रवरसेनकी प्रशंसा को है। कलणकी राजतरङ्गिणीकी उक्तिके अनुसार प्रवरसेन खष्टकी छठी शताब्दीमें थे, अतः दण्डी कवि छठी शताब्दीसे परवर्ती हैं। इसी प्रकार दण्डी और सुबन्धुकी भाषा और रीतिकी तुलना करनेपर दण्डी सुबन्धुसे पूर्ववर्ती प्रतीत होते हैं। अब दण्डीके दशकुमारचरितके विषयमें कुछ लिखते हैं-दशकुमारचरित अपूर्ण ग्रन्थ है, उसकी पूर्वपीठिका और उत्तरपीठिकाको संयुक्तकर परवर्ती किसी लेखकने उसे पूर्ण कर दिया है। संस्कृत साहित्यमें जैसे शद्रककृत मृच्छकटिक प्रकरण राज्यविप्लवको घटनासे संयुक्त होकर अपूर्व स्थान रखता है, उसी तरह दशकुमारचरित भी यथार्थवादका अवलम्बन कर अनोखी प्रणालीका प्रदर्शन करता है। आरम्भमें मगध देशके राजा राजहंसके पराक्रमका और उनकी रानी वसुमतीके रूपका गौडी रीति और ओज गुणसे मनोरम वर्णन किया गया है। राजहंसका मालव देशके राजा मानसारसे युद्ध होता है पहले वे जीतते हैं, पीछे हारकर विन्ध्यगिरिका आश्रय लेते हैं। वहींपर उनके पुत्र राजवाहनका जन्म होता है। शिक्षा प्राप्त कर मन्त्री आदिके नौ पुत्रोंके साथ उनकी मैत्री होती है और वे सब विजयके लिए पृथक-पृथक अभियान करते हैं, पीछे संकेत स्थानमें सब जुट जाते हैं और अपनी-अपनी विक्रमकथाका वर्णन करते हैं। सबलोग राजा राजहंसके पास जाते हैं और मानसारको परास्त कर मगधदेशके शासन में लग जाते हैं, कथाका मूल भाग इतना है। इस काव्यमें अद्भुतरस प्रधान है, इसमें चरित्र और पात्रोंका बाहुल्य है, एवम् चौर्यविद्या, रमणीहरण, गुप्तप्रणय, दूतीप्रेषण आदि अनेकअनेक विचित्र वर्णन हैं। इन सबको देखनेसे उस समयका सामाजिक चित्र जघन्यरूप होनेपर भी यथार्थतासे उतारा गया है। जो हो, इसमें वर्णनशक्ति अतिशय चमत्कारपूर्ण है वसन्तवर्णन, सन्ध्यावर्णन, यमलोकवर्णन, नायक राजवाहनके साथ अवन्तिसुन्दरीका मनोरम प्रणय इत्यादि विषय दण्डोके अपूर्व कवित्व-शक्तिका परिचय दे रहे हैं। इसमें भाषा अत्यन्त मनोरम, अनुप्रासभित होकर अतिशय आकर्षक है । यद्यपि दण्डीने अपने लक्षणग्रन्थमें वैदर्भी रीतिकी प्रशंसा की है तथाऽपि दशकुमारचरितमें हमें वैदर्भी रीतिके साथ गौडी रीतिका भी स्थान-स्थान पर उपलब्धि होती है दीघसमास आदि भी बहुत जगह दृष्टिगोचर होते हैं। उपमा और रूपक आदि अलङ्कार भी ग्रन्थको अलङ्कृत कर रहे हैं । "दण्डिनः पदलालित्यम्" यह कथन नितान्त सत्य प्रतीत होता है। सुबन्धु संस्कृतके गद्यकाव्यमें दण्डीके अनन्तर सुबन्धुका स्थान उपलब्ध है। "राघवपाण्डवेय" काव्यके कर्ता बारहवीं शताब्दीके कविराज कवि-"सुबन्धुर्बाणभट्टश्च कविराज इति त्रयः । वक्रोक्तिमार्गनिपूणाश्चतुर्थो विद्यते न वा ॥" ऐसा लिखकर वक्रोक्तिमें सबसे पहले "सुबन्धु" का उल्लेख करते हैं। सूबन्धुके भी समयके विषयमें विद्वानोंका पर्याप्त मतभेद है। खष्टकी आठवीं शताब्दीके वामन आचार्यने अपनी काव्याऽलङ्कार-सूत्रवृत्तिमें सुबन्धुकी वासवदत्ता तथा बाणभट्टकी कादम्बरीसे उदाहरणोंका प्रदर्शन किया है, इसलिए इन दोनोंका समय ७५० ई० के पूर्व होना चाहिए । ७००-७२५के मध्य भागमें रचित प्राकृतकाव्य "गउडबहो" में सुबन्धुका उल्लेख उपलब्ध होता है। बाणभट्टने अपनी कादम्बरीमें अपनी रचनाके विषयमें "अतिद्वयी कथा"। अर्थात् दो कथाओंको अतिक्रमण करनेवाली कथा ऐसा लिखा। इसमें एक कथाका तात्पर्य है गुणाढयसे पैशाची भाषामें निर्मित बृहत्कथामें, तथा दूसरी कथाका तात्पर्य है सुबन्धुकृत वासवदत्तामें, अतः सुबन्धु बाणभट्टसे पूर्ववर्ती हैं।
SR No.009564
Book TitleKadambari
Original Sutra AuthorBanbhatt Mahakavi
AuthorSheshraj Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1979
Total Pages172
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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