SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कादम्बरी समुत्खात-धरणिमण्डला, कचिदशमुखनगरीव चटुलवानरवृन्द-भज्यमान-तुङ्गशालाकुला, कचिदचिरनिर्वृन-विवाहभूमिरिव हरित-कुश-समित्-कुसुम-शमी-पलाशशोभिता, कचिदुन्वृत्त. मृगपति-नाद-गीतेव कण्टकिता, कचि मत्तेव कोकिलकुल-कलप्रलापिनी, क्वचिदुन्मत्तेव वायुवेगकृत-तालशब्दा, क्वचिद्विधवेव उन्मुक्ततालपत्रा, क्वचित् समरभूमिरिव शर-शत-निचिता, कचिदमरीति-तनुरिव नेत्रसहस्र-सङ्कला, क्वचिन्नारायणमूतिरिव तमालनीला, कचित् पार्थरथ( विष्णतृतीयावतारस्य ) दंष्ट्राभिः (विशालदशनैः ) समुत्खातम् ( ऊर्ध्वमानीतम् ) धरणिमण्डलं ( भूमण्डलम् ) यस्यां सा। प्रलयकाले भगवान्वराहो हिरण्याक्षं हत्वा भूगोलमुबमारेति पौराणिकाः । विन्ध्याऽटवोपक्षे-महावराहैः ( विशालसूकरैः ) दंष्ट्राभिः ( विशालदशनः ) समुत्खातम् ( अवदारितम् ) धरणिमण्डलं ( भूप्रदेशः ) यस्यां सा। क्वचित् = कुत्रचिन् । दशमुखनगरी = रावणपुरी, लङ्केति भावः, सा इव, चटुलवानरेत्यादिः = चटुला: ( चञ्चला ) ये वानराः ( कपयः ) तेषां वृन्दानि ( समूहाः ) तैः भज्यमानाः (आमद्यमानाः ) तुङ्गाः ( उन्नता: ) याः शाला: ( मवनमागा: ) ताभि: आकुला ( व्याप्ता ) विन्ध्याटवीपक्षे-चल० भज्यमानाः ये शाला: ( शालवृक्षा: ) तः आकुला ( व्याला )। क्वचित् = कुत्रचित्, अचिरेत्यादिः = अचिरनिर्वृत्तः ( अल्पकालनिष्पन्नः ) यो विवाहः ( परिणयसंस्कारः ), तस्य भुमिः मेदिनी इव, हरितकुशेत्यादिः = हरिता: ( हरिद्वर्णाः ) ये कुशा (दर्भाः ) समिधः ( काष्ठानि ) कुसुमानि ( पुष्पाणि ) शम्यः ( शिवाः ) पलाशाः (किशुका.' तैः शोभिता ( शोमासम्पन्नाः ), उमयत्र समानोऽर्थः । क्वचित्%D कुत्रचित् । उवृत्तत्यादिः = वृत्तः ( दुर्वृत्तः, क्रूर इति भाव: ) एतादृशो यो मृगपतिः (मृगेन्द्रः, सिंहः ) तस्य नादः (गजनम् ) तस्मात् भीता ( त्रस्ता ) इव, कण्टकिता = रोमाञ्चिता, विन्ध्याटवीपक्षे-सजातकण्टका, इव, उत्प्रेक्षाऽलङ्कारः । क्वचित् = कुत्रचित्, मत्ता इव = मद्यपानमदयुक्ता रमणी इव, कोकिलकुलप्रलापिनी = कोकिलानां ( पिकानाम् ) कुलं (समूहः ), ते न प्रलापिनी (अनर्थकवचोयुक्ता )। क्वचित् = कुत्रचित्, उन्मत्ता इव = उन्मादयुक्ता इव, वायवेगकृततालशब्दा = वायुवेगेन ( वातविकारेण कृताः (विहिताः ) तालशब्दाः ( करतालशब्दाः ) यया। विन्ध्याऽटवीपक्षे-वायुवेगेन ( वातजवेन ) कृताः (विहिताः ) तालशब्दाः ( तालवृक्षध्वनयः ) यस्यां सा। ___क्यचित् = कुत्रचित्, विधवा इव = विगतः धवः ( पति: ) यस्याः सा, मृतभर्तृका नारी इवेति भावः । मुक्ततालपत्त्रा= उन्मुक्तानि ( त्यक्तानि ) तालपत्त्राणि ( कर्णाभरणानि ) यया सा "कणिका तालपत्त्रं स्यात्" इत्यमरः, विन्ध्याऽटवीपक्षे—उन्मुक्तानि तालपत्राणि ( तालवृक्षदलानि ) यया सा । क्वचिन, समरभूमिः इव = रणभः इव, शरशतनिचिता= शरशतैः ( बाणशतैः ) निचिता ( व्याप्ता )। विन्ध्याऽटवोपक्षे-शरशतैः ( तेजनकवृक्षशतः ), निचिता ( व्याप्ता ) । 'गुन्द्र स्तेजनकः -------- मधु ( मदिरा ) के पात्रोंसे युक्त और बिखरेहुए अनेक फूलोंसे युक्त होती है वैसे ही वह सैकड़ो मधुकोशों(शहदके छत्तों) से युक्त और विखरे हुए अनेक फूलोंसे युक्त है। प्रलयकी वेला (समय) में महान् वराह ( वराहाऽवतार भगवान् विष्णु ) की दाढ़ासे उठाई गई भूमिकी सदृश कहींपर महावराहों (बड़े मूअरों) की दाढ़ोंसे उठाई गई भूमि देखा जाता है। जैसे रावणकी नगरी (लङ्का) चन्चल वानरोंसे तोड़ी गई शालाओं (भवनभागों) से माप्त थी वैसे ही कहोपर वह चञ्चल वानरोंसे तोड़े गये शाल वृक्षोंसे व्याप्त है। कहींपर कुछ समय पहले ही सम्पन्न विवाहको भूमिकी समान हरे कुशों, समिधाओं, फूलों और पलाश वृक्षोंमे शोभित भूमि है। कहींपर उन्मत्त मिहाके गर्जनसे टरी हुई-सी कण्टकित (रोमाञ्चयुक्त वा कांटोंवाली ) जमीन है। कहींपर मदसे मत्त स्त्रोकी सदृश कोकिलकुलके प्रलापसे युक्त है। कहीपर उन्मत स्वीकी सदृश वायुवेगसे तालशब्द (ताड़के वृक्षाका शब्द ) करनेवाला है। कहींपर तालपत्त्र ( कर्णभूषण ) को छोड़नेवाली विधवा स्त्रीको समान तालपत्रों(ताड़ वृक्षके पत्तों ) को छोड़नेवाली (विध्याटवी ) है। कहींपर सैकड़ों शरों (बाणों) से व्याप्त युद्ध भूभिकी समान सैकड़ी शरी ( वृता) में व्याप्त (विन्याटवा ) है । कह पर सहस्रांनेां से व्याप्त इन्द्र की तनु (शरोर) की
SR No.009564
Book TitleKadambari
Original Sutra AuthorBanbhatt Mahakavi
AuthorSheshraj Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1979
Total Pages172
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy