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________________ ५८ कादम्बरी प्रनृत्तनीलकण्ठा पल्लवारुणा च, अमृतमथनवेलेव श्रीद्रुमोपशोभिता वारुणी-परिगता च, प्रावृडिव घनश्यामला अनेकशतह्रदालङ्कृता च, चन्द्रमूतिरिव सततमृक्षसार्थानुगता हरिणाध्यासिता च, राज्यस्थितिरिव चमरमृग-बालव्यजनोपशोभिता समदगजघटा-परिपालिता च, गिरितनयेव स्थाणुसङ्गता मृगपतिसेविता च, जानकीव प्रसूतकुशलवा निशाचरपरिगृहीता च, वतिनौ ) विपुलाऽचलौ ( विपुलाऽचलनामकौ सखायौ ) यस्यां सा । शशोपगता = शशेन ( राशनामकेन मन्त्रिमुख्येन) उपगता (संयक्ता) च। विन्ध्याटवीपक्षे-सन्निहितविपुलाऽचला =सन्निहिताः ( निकटर्तिनः ) विपुलाः ( महान्तः ) अचलाः ( पर्वताः ) यस्यां सा । शशोपगता = शशैः ( पञ्चनख पशुविशेषः ) उपगता ( सहिता )। कल्पान्तप्रदोषसन्ध्या = कल्पाऽन्तस्य (यगाऽन्तस्य ) यः प्रदोषः ( रजनीमुखम् ) तस्य सन्ध्या (सायंवेला) सा, इव । प्रनृत्तनीलकण्ठा = प्रनृत्तः ( कृतनृत्यः ) नीलकण्ठः ( महादेवः ) यस्यां स।। पल्लवाऽरुणा = पल्लवम् (किसलयम् ) इव अरुणा ( रक्तवर्णा ), विन्ध्याऽटवीपक्षे—प्रनृत्ताः नीलकण्ठाः ( मयूराः ) यस्यां सा, "मयूरो बहिणो बही नीलकण्ठो भुजङ्गभुक् ।' इत्यमरः । पल्लवाऽरुणा=पल्लवै: अरुणा च। अमृतमथनवेला = अमृताय (पीयूषाय ) यत् मथनं ( समुद्रविलोडनम् ) तस्य वेला ( समयः ) इव, श्रीद्रुमोपशोभिता = श्री: ( लक्ष्मी: ) द्रुमः ( वृक्षः, कल्पवृक्ष इति भावः ) ताभ्याम् उपशोभिता ( शोभासम्पन्ना) वारुणोपरिगता = वारुण्या ( मदिरया ) परिगता ( सहिता ) च, विन्ध्याऽटवीपक्षे-श्रीद्रुमोपशोभिता= श्रीद्रुमैः ( लक्ष्मीवृक्षः, बिल्ववृक्षरिति भाव: ) उपशोभिता (शोभासम्पन्ना)। वारुणी-परिगता=पश्चिमदिक्त्राप्ता । प्रावड् = वर्षर्तुः, इव, घनश्यामला = घनः ( मेघः ) श्यामला ( कृष्णवर्णा ), अनेकशतह्रदाऽलङ्कृता अनेकाः (बह्वयः) शतह्रदा: ( विद्युतः ), ताभिः अलङ्कृता ( भूषिता) च घना । विन्ध्याटवीपक्षे-घनश्यामला = घना ( वृक्षौनबिडा ) श्यामला ( कृष्णवर्णा ) च। अनेकशतानि (बहुशतानि ) ये ह्रदाः ( अगाधजला: जलाशयाः ) तैः अलङ्कृता । "तत्राऽगाधजलो ह्रदः" इत्यमरः । चन्द्रमूर्तिः = इन्दुदेह, इव, सततं = निरन्तरम् । ऋक्षसार्थाऽनुगता = ऋक्षाणां (नक्षत्राणाम् ) सार्थः (समूहः ), तेन अनुगता (अनुसृता), "नक्षत्रमृक्षं भं तारा" इत्यमरः हरिणाऽध्यासिता= हरिणेन ( मृगचिह्नन ) अध्यासिता ( आश्रिता ) च । विन्ध्याटवीपक्षे-ऋक्षसार्धाऽनुगता= ऋक्षाणां (भल्लूकानाम् ) सार्धन अनुगता। हरिणः ( मृगः ) अध्यासिता च । राज्यस्थितिः = राज्यमर्यादा, इव, चमरमृगेत्यादिः= चमरमृगाणां (चमरहरिण नाम् ) वालानां ( शिरोरुहाणाम् ) व्यजनानि (चामराणि ) तैः उपशोभिता (शोभासम्पन्ना ), समदगजघटापरिपालिता= समदा ( मदजलसहिता ) या गजघटा ( हस्तिसमूहः ), तया परिपालिता= ( संरक्षिता ) च । विन्ध्याटवीपक्षे-चमरमृगेत्यादिः = चमरमृगः ( चमरहरिणः ), तेषां वाल: ( शिरोरुहै: ), व्यजन: ( व्यजनप्रकृतिभिस्तालादिवृक्षः ), उपशोभिता। गिरितनया = सन्ध्या, नाचते हुए नीलकण्ठ (शिवजी) से युक्त है और पल्लवकै समान लालवर्णवाली है वैसे हो वह (विन्ध्याटवी), नाचते हुए नीलकण्ठों ( मयूरों) से युक्त है और पल्लवोंसे लालवर्णवाली है। जैसे अमृतमथनकी बेला ( समय ) श्री ( लक्ष्मी) और द्रम ( वृक्ष-अर्थात् कल्पवृक्ष) से शोभित और वारुणी ( मदिरा ) से युक्त थी वैसे ही वह श्रीमों ( बेलके वृक्षों) से शोभित और वारुणी ( वरुणदिशा पश्चिम ) को प्राप्त हुई है। वर्षा (ऋतु ) जैसे धन (मेघ) से श्यामवर्ण और अनेक शतहदाओं (बिछियों ) से अलङ्कृत होती है वैसे ही वह वृक्षोंसे घन (गाढ) और श्यामवर्णवाली और सैकड़ो हदों (गहरे जलाशयों) से अलङकृत है। जैसे चन्द्रकी मूर्ति निरन्तर क्षों ( नक्षत्रों) के समूहसे अनुसत है और हरिग ( मृगचिह्न ) से आश्रित है वैसे ही वह निरन्तर ऋक्षों (रीछों) के समूहसे अनुसृत है और हरिणों ( मृगी) से आश्रित है। जैसे राज्यमर्यादा चमरमृगोंके वालों (रोओं) के चमरसे शोभित है और मदयुक्त हाथियोंके समूहसे परिपालित है वैसे ही वह चमरमृगोंसे और उनके बालों (चमरों) से और व्यजन ( पसा) के हेतु ताडवृक्षोंसे शोभित है, और मदयुक्त हाथियोंसे परिपालित है। जैसे पार्वती स्थाणु (शिवजी) से संयुक्त हैं और वाहनरूप सिंहसे सेवित हैं वैसे ही
SR No.009564
Book TitleKadambari
Original Sutra AuthorBanbhatt Mahakavi
AuthorSheshraj Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1979
Total Pages172
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size14 MB
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