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________________ सुध हो आती है, उसी प्रकार ज्ञानी ज्ञी सारा दिन संसार का नाटक करके सामायिक के समय अपने सांसारिकवेश को उतार फैकत्ता है, यह शरीर रूप जो चोला धारण किया हुआ है, उसे भी स्वयं से पृथक कर अपनी असलियत को प्राप्त करता है और फिर अपने घर जाए बिना उसे चैन नहीं पड़ती। अत: वह निज शुद्धात्मा मे रमण करता है, वहीं स्वतन्त्र रूप मे विहार करता है। कल्याणकारी शास्त्रों के रचियता उन भगवान आचार्यों के अन्तरंग मे करूणा का कैसा समुद्र बहता होगा कि जिस किसी प्रकार भी यह जीव अपने अनादि मिथ्यात्व को छोडकर सम्यग्दर्शन को, उस निर्विल्पि स्वानुभव को प्राप्त कर ले। निर्विकल्प स्वानुभव चौथे गुणस्थान में हो सकता है, क्याकि चौथा गुणस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि का है और निर्विकल्प स्वानुभूति के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता। कुछ व्यक्ति ऐसा मानते है कि चौथे गुणस्थान मे निर्विकल्प स्वानुभूति नही होती क्योकि वे कहते है कि शास्त्रों में, तो आठवें गुण स्थान से निर्विकल्प समाधि लिखी है। शास्त्रो मे ऐसा कथन आता है, यह बात सत्य है। परन्तु किस विवक्षा से ऐसा लिखा गया है यह तो हमें ही समझना होगा क्योकि _ 'चतुर्थ गुणस्थान में निर्विकल्पानुभूति होती हैं। यह कथन शास्त्र का ही है। शास्त्रों मे अलग अलग स्थलों पर भिन्न भिन्न ढंग के कथन मिलते है। उसमे आचार्यो की अपेक्षाएं लगाकर हमे बुद्धि मे उनका तालमेल बैठाना होगा, जिससे कि कोई विरोध न रहे। चतुर्थ गुणस्थान मे निर्विकल्पानुभूति उन्होने कैसे कही, इसका खुलासा यही है कि विकल्प दो प्रकार के होते है-एक तो बुद्धिपूर्वक और दूसरे अबुद्धिपूर्वका जो जीव की पकड़ में आए उसे बुद्धिपूर्वक और जो उसकी पकड़ से बाहर हो, उसे अबुद्धिपूर्वक कहते है। चौथे
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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