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________________ मे जानने वाला और बाहर से श्वास और अन्य कोई शारीरिक क्रिया या बोलने की क्रिया- ऐसे दो रहते है, मन नहीं रहता। जहां ज्ञातापना होगा वहां मन तो रह ही नही सकता, क्योकि शक्ति तो वही है। यदि वह मन में लग जाएगी तो ज्ञाता में कहां से लगेगी, शरीर की कोई क्रिया या श्वास की क्रिया जाननपने के साथ भी बनी रह सकती है क्योकि इन क्रियाओ में चेतना की बहुत थोड़ी सी शक्ति लगती है परन्तु मन के विकल्पों में तो अत्याधिक शक्ति खर्च होती है। ज्ञानी ज्ञान का कर्ता: ज्ञानी के भी ज्ञानधारा व कर्मधारा दोनो चल रही है पर वह ज्ञानधारा का ही मालिक है। कर्मधारा का कार्य हो रहा है, पर ज्ञानी उसका जानने वाला ही है, कर्ता नही है, कर्मधारा मे उसके अपना नही है। जैसे हम दूसरे आदमी को देखते जानते है, उसके क्रोधादिक को भी देखते है और शरीर की अवस्था को भी देखते है, परन्तु उस - रूप नही होते वैसे ही यह दूर खड़ा होकर कर्मधारा को देखता है, पर उसे अपने रूप अनुभव नही करता। अतः अब जान अपना ही कर्ता-भोक्ता है कर्म के कार्य का कर्त्ता भोक्ता नही। सोने मे यदि चांदी मिली हो तो भी वह शुद्ध स्वर्ण की दृष्टि से तो खोट ही कहलायेगी, उस खोट को ऐसा नही कहेंगे कि यह चांदी का है, तो कुछ अच्छा है। - - (( मोक्षमार्ग मे भी शुद्ध स्वर्ण की भाँति मात्र शुद्ध आत्मा को ग्रहण करने की दृष्टि है। अतः यही निश्चित हुआ कि कर्म ही संसार है, चाहे वह कित्तनी ही ऊँची से ऊँची जाति का हो, चाहे तीर्थकर प्रकृति ही क्यों न हो, जितना ज्ञान रूप रहना उतना मोक्षामार्ग, जितना कर्म उत्तना संसार" यह वस्तु - तत्व ज्ञानी के अच्छी तरह समझ में आ गया है, अतः अभी तक तो शक्ति कर्म के कर्तृत्व में लगती थी, वही अब ज्ञान में कर्म के कार्य को जानने मे, लगने लगी है। अतः (( 37 ))
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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