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________________ नही होता है, तो वह छठे गुणस्थान से पांचवे में आ जाता है। यद्यपि बाह्म आचरण अभी भी मुनि अवस्था का ही है। प्रत्याख्यानवरण कषाय का फिर से उदय हो जाता है। यदि फिर पन्द्रह दिन तक भी आत्मानुभव न हों, तो वह चौथे गुणस्थान में आ जाता है और छह महीने तक भी आत्मानुभव न हो, तो पहले गुणस्थान मे ही पुहंच जाता है। तीसरा और दूसरा गुणस्थान जीव के चौथे से पहले की ओर गिरते समय होते है। पुन: यदि अपने आपको ठीक कर लेता है तो फिर से ऊपर चढने की सम्भावना बनती है। छठे गुणस्थान में जब आत्मानुभव होता है तो सातवां गुणस्थान हो जाता है। यदि उस आत्मानुभव से नीचे न गिर कर यह साधक ध्यान की लीनता को बढाता है, तो सातवें से आठवां-नवां- दसवां, ये गुणस्थान होते है। वहां अन्तरंग में संज्वलन कषाय तीव्र से मंद, मंदतर, मंदतम होती चली जाती है। और ध्यान अवस्था चलती रहती है, जिसे शुक्लध्यान कहा गया है। आठवें, नवें तथा दसवें गुणस्थानो में ध्यानस्थ अवस्था रहते हुए उसमे गहराई उत्तरोत्तर बढती जाती है। सातवें में डुबकी लगता था और फिर बाहर आ जाता था। आठवें मे भीतर डूबता जाता है परन्तु अभी सतह पर बुलबुले उठ रहे है। और अधिक गहराई में जाता है, तो बुलबुले उठने भी बंद हो जाते है। आत्मध्यान की गहनता के फलस्वरूप सूक्ष्मलोभ का भी अभाव होकर कषाय रहित बारहवां गुणस्थान होता है। इसके पश्चात शुक्लध्यान के दूसरे पाये के द्वारा आत्मा के ज्ञान-दर्शन-सुख- वीर्य अनन्तता को, पूर्ण विकास को प्राप्त हो जाते है- तेरहवां गुणस्थान हो जाता है। यहां पर शरीर का और शरीर-सम्बन्धी कर्म-प्रकृतियों का सम्बंध अभी शेष है। यहां बिना किसी प्रयत्न या इच्छा के, मेघ की गर्जना के समान सहज-स्वभाविक रूप से, वाणी खिरती है, जिससे प्राणीमात्र को : आत्मकल्याण का, अनन्त दुःख से छूटने का और परमात्मा बनन का ((35))
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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