SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनंतानंत जन्मों के इकट्ठे किये हुए। पर अब यह उसको जानने वाला रहता है, कर्म के फल- रूप नही होता। अब कर्म में इसका अपनापना, कर्तापना, अहंपना नही रहा। इसका अहंपना तो अपने में, चैतन्य में, ज्ञाता - द्रष्टामे आ गया है। अब इसे भीतर का स्वाद आ गया है, वास्तविक मोक्षमार्ग का ज्ञान हो गया है। रागवश बाहर आता है, फिर अपनेको सावधान करके भीतर जाने की कोशिश करता है, फिर बाहर आ जाता है, फिर भीतर जाने का पुरुषार्थ करता है। ऐसा करते-करते ही इसका भीतर रहने का समय कमशः बढ़ने लगता है और बाहर जाना, पर में उपयोग का जाना, घटने लगता है। इस प्रकार एक दिन वह स्वरूप में पूर्णतया स्थित हो जाता है । जैसे, किसी बच्चे को मुंह में उंगली लेने का आदत पड़ गई बार - बार समझाये जाने पर भी उसकी समझ मे ही नही बैठता था कि यह आदत गंदी है, और जब तक स्वयं उसकी समझ मे न बैठे कि मुझे इसे छोडना चाहिये तब तक तो उसके छूटने का प्रश्न ही नही उठता। एक दिन बार- बार सुनते-सुनते उसकी समझ मे आया कि यह आदत बुरी है। अब वह इस विषय मे सावधानी बरतता है कि मुंह में उंगली न जाये, पर जैसे ही जरा असआवधानी होती है कि वह फिर आदतवश अन्दर पहुंच जाती है; फिर सावधान होकर उसे बाहर निकालता है, और तत्सम्बन्धी सावधानी बढाने का निरन्तर पुरुषार्थ करता है। ऐसा करते-करते एक रोज वह पाता है कि अब पूरी जागृति हो गई है, अब उंगली मुंह में बिल्कुल नही जाती, अब आदत पुरी तरह छूट गई है। इसी प्रकार ज्ञानी के भी स्वरूप मे रमणता बढाते - बढाते कषाय घटते लगती है ओर पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती चली जाती है । आत्मोन्नति के इसी क्रम को आगम में चौदह गुणस्थानों के माध्यम से समझाया गया है। (( 33 ))
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy