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________________ उन विचारों को न तो करने वाले हो, न रोकने वाले, तुम तो उन्हें मात्र जानने वाले हो, अपना काम किए जाओ। तुम मन नहीं, तुम देह नहीं, जरा भीतर सरक जाओ ओर देखते रहो। मन को कहो - "जहां जाना हो जा, जो विचार उठाने हैं उठा, हम तो बैठकर तुझे देखेगें।" जैसे ही यह कहकर देखना चालू किया कि तुम पाओगे कि मन सरकता ही नहीं - तुम करके देख्ना; आज ही करके देखना, यह मन तब अन्तिम विकल्प उठाएगा कि छोड़ न किसमें लग गया तू, पहले ही ठीक था, सब बातें झूठी हैं। पर तुम्हे इस मन से ऊपर उठना है। अगर तुमने धैर्य रखा और देखते ही गए, तो तुम पाओगे कि कभी-कभी कुछ होने लगता है, मानो बरसात की फुहार का एक झोंका आया हो। एक क्षण के लिये सब शून्य हो जाता है, निर्विकार हो जाता है। अगर ऐसा हुआ तो चाबी मिल गई कि निर्विकार हुआ जा सकता है। और, जो एक क्षण के लिए हो सकता है वह एक मिनट के लिए एक घण्टे के लिए, एक दिन के लिए वह हमेशा के लिए क्यों नहीं ? पहले बंद - बंद बरसेगा फिर एक दिन तुफान आ जाएगा, बाढ़ आ जाएगी। तब क्या होगा? वह होगा जो आज तक कभी नहीं हुआ था। मालूम होगा कि भीतर कोई जागा हुआ है, बाहर में सोये हुए भी वह जागा हुआ मालूम देगा, चलते हुए भी अनचला मालूम देगा, बोलते हुए भी अनबोला दिखाई देगा। बाहर में सारी क्रियाएँ होगी पर 'उसमें कुछ भी होता मालूम न होगा। जिसकी मौजूदगी में तुम शांत होने लगो, जो विचारों से बार-बार हटाकर तुम्हें भीतर पहुंचाने लगे, वही साक्षीभाव है। साक्षी की गेर मौजूदगी ही मन है। जब साक्षी सोता है तो मन अपना काम करता हैं जैसे ही तुम जगे, सावधान हुए साक्षी बने, वैसे ही पाओगे कि मन गया। तुम्हारा संसार तुम्हारे मन में है। साक्षी हुए मन (( 26 ))
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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