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________________ वह है जो खाने हुए भी खाता नहीं, चलते हुए भी चलता नहीं, रोते हुए भी रोता नहीं क्रोधादि होते हुए भी क्रोधी नहीं होता, दुःख होते हुए भी दु:खी नहीं होता। सुख होते हुए भी सुखी नहीं होता, परन्तु सब अवस्थाओं को मात्र जान रहा हैं। अब इन दोनों में से जीव को यह निर्णय करना है कि मैं कौन हूँ? क्योंकि आत्मा नित्यहै, अत: मैं जानने वाला ही हो सकता हूँ, और ये सारे परिणमन अनित्य हैं, निरन्तर बदलते जा रहे हैं, अत: मैं इन रूप नहीं हूँ। यदि मैं इन रूप होता तो इनके नाश के साथ मेरा नाश हो जाना चाहिए था। परन्तु मेरी सत्ता इनके विनष्ट होने पर भी बनी हुई है, अत: इन रूप कैसे हो सकता हूँ। इस प्रकार पहले तो यह बुद्धि के स्तर पर - विकल्प रूप से - निश्चित कर कि मैं तो केवल जानने वाला हूँ और बाकी सब पर हैं। ऐसे निर्णय के बाद अब उस जानने वाले में जहां कि वह है, अपने भीतन - अपनी सत्ता की अनुभूति करनी है। स्वानुभव के मार्ग का ज्ञान : प्रश्न होता है कि ऐसी अनुभूति कैसे हो? बड़ी कठिनाई आती है यहां पर कि जो कुछ भी नि:शब्द जाना गया है, उसे शब्दों में कैसे कहें? जो स्वयं निर्विकल्प रूप है उसे विकल्प में केसे कहें परन्तु फिर भी उसकी प्राप्ति के उपाय को कहने का कुछ साहस किया जाता है। हममें मन के विचारों की, श्वास की, वचन की व काय की जो भी क्रियायें प्रतिसमय होती जा रही है, चेतना उनकी साक्षीभूत बनी उन्हें निरन्तर देखती जा रही है। परन्तु उन विचारों आदि को हमने अपना होना समझ लिया है। और उस साक्षी को हम पहचानते नहीं जबकि आत्म - अनुभव के लिए उस साक्षी का अभ्यास ही अपेक्षित है। साक्षीभाव का अर्थ है दर्शन अर्थात् बिना सोचे देखना। साक्षी है (124))
SR No.009562
Book TitleSwanubhava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherBabulal Jain
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size3 MB
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