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________________ समयसार है नहीं।।२३-२५ ।। आगे अज्ञानी जीव कहता है -- जदि जीवो ण सरीरं, तित्थयरायरियसंथुदी चेव। सव्वा वि हवदि मिच्छा, तेण दु आदा हवदि देहो।।२६।। यदि जीव शरीर नहीं है तो तीर्थंकर तथा आचार्योंकी जो स्तुति है वह सभी मिथ्या होती है। इसलिए हम समझते हैं कि आत्मा शरीर ही है।।२६ ।। आगे आचार्य समझाते हैं -- ववहारणयो भासदि, जीवो देहो य हवदि खलु इक्को। ण दु णिच्छयस्स जीवो, देहो य कदावि एकट्ठो।।२७।। व्यवहार नय कहता है कि जीव और शरीर एक हैं परंतु निश्चय नयका कहना है कि जीव और शरीर एक पदार्थ कभी नहीं हो सकते।।२७।। आगे व्यवहार नयसे शरीरका स्तवन और शरीरके स्तधनसे आत्माका स्तवन होता है यह कहते हैं -- इणमण्णं जीवादो, देहं पुग्गलमयं थुणित्तु मुणी। मण्णदि हु संथुदो, वंदिदो मए केवली भयवं ।।२८ ।। जीवसे भिन्न पुद्गलमय शरीरकी स्तुति कर मुनि यथार्थमें ऐसा मानता है कि मैंने केवली भगवानकी स्तुति की और वंदना की।।२८ ।। आगे शरीरके स्तवनसे आत्माका स्तवन मानना निश्चयकी दृष्टिमें ठीक नहीं है -- तं णिच्छये ण जुज्जदि, ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो। केवलिगुणे थुणदि जो, सो तच्चं केवलिं थुणदि।।२९।। उक्त स्तवन निश्चयकी दृष्टिमें ठीक नहीं है, क्योंकि शरीरके गुण केवलीके गुण नहीं हैं। जो केवलीके गुणोंकी स्तुति करता है वही यथार्थमें केवलीकी स्तुति करता है।।२९।। आगे प्रश्न है कि जब आत्मा शरीरका अधिष्ठाता है तब शरीरके स्तवनसे आत्माका स्तवन निश्चय नयकी दृष्टिमें ठीक क्यों नहीं है? इस प्रश्न के उत्तरमें कहते हैं कि -- णयरम्म वण्णिदे जह, ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि। देहगुणे थुव्वंते, ण केवलिगुणा थुदा होति।।३०।। जिसप्रकार नगरका वर्णन करनेपर राजाका वर्णन किया हुआ नहीं होता उसी प्रकार शरीरके गुणोंका स्तवन होनेपर केवलीके गुण स्तुत नहीं होते।।
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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