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________________ समयसार ४९ जो पुरुष आत्माको अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष तथा उपलक्षणसे नियत और असंयुक्त देखता है वह द्रव्यश्रुत और भावश्रुतरूप समस्त जिनशासनको देखता है -- जानता है । । १५ ।। आगे ज्ञान, दर्शन और चारित्र निरंतर सेवन करनेयोग्य हैं यह कहते हैंदंसणणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । वि', अप्पाणं चेव णिच्छयदो । । १६ ।। साधु पुरुषके द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र निरंतर सेवन करनेयोग्य हैं और उन तीनोंको ही निश्चयसे आत्मा जानो। यहाँ अभेद नयसे गुणगुणीमें अभेद विवक्षा कर सम्यग्दर्शनादिको तथा आत्माको एक रूप कहा है ।। १६ ।। आगे इसी बातको दृष्टांत और दाटतके द्वारा स्पष्ट करते हैं. जाम को वि पुरिसो, रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तो तं अणुचरदि पुणो, अत्थत्थीओ पयत्तेण । । १७ ।। एवं हि जीवराया, णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो । अणुचरिदव्वोय पुणो, सो चेव दु मोक्खकामेण । । १८ । । जुम्मं जिस प्रकार धनका चाहनेवाला कोई पुरुष पहले राजाको जानकर उसका श्रद्धान करता है और उसके बाद प्रयत्नपूर्वक उसीकी सेवा करता है। इसी प्रकार मोक्षको चाहनेवाले पुरुषके द्वारा जीवरूपी राजा जाननेयोग्य है, श्रद्धान करनेयोग्य है और फिर सेवा करनेयोग्य है। भावार्थ -- जिस प्रकार राजाके ज्ञान, श्रद्धान और अनुचरण -- सेवाके बिना धन सुलभ नहीं है। उसी प्रकार आत्माके ज्ञान, श्रद्धान और अनुचरणके बिना मोक्ष सुलभ नहीं है । । १७-१८ ।। यह आत्मा कितने समय तक अप्रतिबुद्ध-- अज्ञानी रहता है? इस प्रश्नका उत्तर देते हैं. कम्मे णोकम्मम्हि य, अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी, अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ' । । १९ । । जब तक इस जीवके कर्म और नोकर्ममें 'मैं कर्म नोकर्मरूप हूँ और ये कर्म नोकर्म मेरे हैं' निश्चयसे ऐसी बुद्धि रहती है तब तक वह अप्रतिबुद्ध - अज्ञानी रहता है । । १९ । । १. तिणवि ज. वृ. । जीवेव अजीवे वा संपदि समयम्हि जत्थ उवजुत्तो । तत्थेव बंधमोक्खो होदि समासेण णिहिट्टो ।। कुदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स । णिच्छयदो ववहारा पोग्गलकम्माण कत्तारं ।। २. उन्नीसवीं गाथाके आगे ज. वृ. में निम्न गाथाएँ अधिक व्याख्यात हैं।
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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