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________________ कुन्दकुन्द-भारती कोई पुरुष विषयों का सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता है और कोई सेवन न करता हुआ भी सेवन करनेवाला है। जैसे किसी मनुष्यके कार्य करनेकी चेष्टा तो है अर्थात् प्रकरण संबंधी समस्त कार्य करता है परंतु वह प्रकरणका स्वामी है ऐसा नहीं होता । । १९७ ।। -- आगे सम्यग्दृष्टि जीव सामान्यरूपसे निज और परको इसप्रकार जानता है यह कहते हैं उदयविवागो विविहो, कम्माणं वण्णिओ जिणवरेहिं । ८६ दु ते मज्झ सहावा, जाणगभावो दु अहमिक्को । । १९८ ।। कर्मोंके जो विविध प्रकारके उदयरस जिनेंद्रभगवानने कहे हैं वे मेरे स्वभाव नहीं हैं, मैं तो एक ज्ञायकभावरूप हूँ। आगे सम्यग्दृष्टि जीव विशेषरूपसे निज और परके उदयको इस प्रकार जानता है यह कहते हैं -- पुग्गलकम्मं रागो, तस्स विवागोदओ हवदि एसो । दुस मज्झ भावो, जाणगभावो हु अहमिक्को । । १९९ ।। राग नामका पुद्गल कर्म है। यह रागभाव उसीके विपाकका उदय है। यह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो एक ज्ञायकभावरूप हूँ । । १९९ ।। २ आगे इसका फलितार्थ कहते हैं. एवं सम्मद्दिट्ठी, अप्पाणं मुणदि जाणयसहावं । उदयं कम्मविवागं, य मुअदि तच्चं वियाणंतो । । २०० ।। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अपने आपको ज्ञायक स्वभाव जानता है और तत्त्वको -- वस्तुके यथार्थ स्वरूपको जानता हुआ उदयागत रागादिभावको कर्मका विपाक जानकर छोड़ता है । । २०० ।। आगे सम्यग्दृष्टि रागी क्यों नहीं होता है? इसका उत्तर कहते हैं. १. कोहोज. वृ. । एवमेव च रागपदपरिवर्तनेन द्वेषमोहक्रोधमानमायालोभकर्मनाकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्प्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि ।। ज. वृ. २. ज. वृ. में १९९ के आगे निम्न गाथा अधिक उपलब्ध है। परमाणुमित्तयं पि हु, रायादीणं तु विज्जदे जस्स । वि सो जादि अप्पाणयं तु सव्वागमधरोवि । । २०१ । । ३. सम्माइट्टं ज. वृ. । कह एस तुज्झण हवदि विविहो कम्मोदयफलविवागो । परदव्वाणुवओगो ण दु देहो हवदि अण्णाणी ।।
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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