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________________ समयसार एवं जाणइ णाणी, अण्णाणी मुणदि रायमेवादं। अण्णाणतमोच्छण्णो, आदसहावं अयाणंतो।।१८५।। जिस प्रकार सुवर्ण अग्निसे तपाये जानेपर भी सुवर्णपनेको नहीं छोड़ता है उसी प्रकार कर्मोदयसे तप्त हुआ ज्ञानी ज्ञानीपनेको नहीं छोड़ता है। ज्ञानी इस प्रकार जानता है परंतु अज्ञानी चूँकि अज्ञानरूपी अंधकारसे आच्छादित है अत: आत्मस्वभावको नहीं जानता हुआ रागको ही आत्मा मानता है।।१८४१८५।। आगे शुद्धात्माकी उपलब्धिसे ही संवर क्यों होता है? इसका उत्तर कहते हैं -- सुद्धं तु वियाणंतो, सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो। जाणंतो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहइ।।१८६।। शुद्ध आत्माको जानता हुआ जीव शुद्ध ही आत्माको पाता है और अशुद्ध आत्माको जानता हुआ जीव अशुद्ध ही आत्माको पाता है।।१८६।।। आगे संवर किस प्रकार होता है? इसका उत्तर कहते हैं -- अप्पाणमप्पणा रुंधिऊण दो पुण्णपावजोएसु। दंसणणाणम्हि ठिदो, इच्छाविरओ य अण्णम्हि।।१८७।। जो सव्वसंगमुक्को, झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा। णवि कम्मं णोकम्मं, चेदा चिंतेदि एयत्तं ।।१८८।। अप्पाणं झायंतो, दंसणणाणमओ अणण्णमओ। लहइ अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ।।१८९।। जो जीव अपने आत्माको अपने आपके द्वारा शुभअशुभरूप दोनों योगोंसे रोककर दर्शनज्ञानमें स्थित हुआ अन्य पदार्थों में इच्छारहित है तथा समस्त परिग्रहसे रहित होता हुआ आत्माके द्वारा आत्माका ही ध्यान करता है। कर्म और नोकर्मका ध्यान नहीं करता, किंतु चेतनारूप होकर एकत्व भावका चिंतन करता है वह आत्माका ध्यान करनेवाला, दर्शनज्ञानमय तथा अन्यवस्तुरूप नहीं होनेवाला जीव शीघ्र ही कर्मोंसे रहित आत्माको ही प्राप्त करता है।।१८७-१८९।।* एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः। बाह्याः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा।। ज. वृ.। १८९ गाथाके आगे ज. वृ. में निम्नांकित दो गाथाओंकी व्याख्या अधिक की गयी है -- उवदेसेण परोक्खं रूवं जह पस्सिदण णादेदि। भण्णदि तहेव धिप्पदि जीवो दिट्ठो य णादो य।। कोविदिदच्छो साहू संपडिकाले भणिज्ज रूवमिणं। पच्चक्खमेव दिटुं परोक्खणाणे पवटुंतं ।। ज. वृ. ।
SR No.009561
Book TitleSamaya Sara
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages79
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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