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________________ साधु के पंच-महाव्रतों का पालन स्वयमेव होता है। __ निज स्वभाव का स्वाद आया तो शेष सब स्वाद नीरस हो गये, बेस्वाद हो गये। निज-स्वभाव के समक्ष पर स्पर्श की इच्छा ही नहीं रही। स्वभाव को देखा तो अन्य कुछ देखने योग्य ही नहीं रहा। निज-स्वभाव के अनहद नाद को सुना तो अन्य कुछ सुनने को नहीं रहा। निज-गंध में रम गया तो अन्य कुछ सूंघने को नहीं रहा। इस प्रकार अपने स्वभाव का अवलम्बन लिया तो पाँचों इन्द्रियों का निरोध स्वतः ही हो गया। राग की इतनी कमी हो गई कि किसी कार्य के प्रति आसक्ति ही नहीं रही। फल यह हुआ कि अब कोई भी कार्य-चलना, उठना-बैठना, बोलना, किसी वस्तु का रखना-उठाना, अथवा मल-मूत्रादि का विसर्जन आदि-यत्नाचार के बिना नहीं होता। बिना देखे-शोधे आहार लेने का भाव नहीं होता, क्योंकि न तो शरीर से राग है और न भोजन से। आहार मिल गया तो हर्ष नहीं, और न मिला तो विषाद नहीं। राग की ऐसी ही आत्यन्तिक कमी के कारण साधु को पर में प्रतिकूलता-अनुकूलता का तनिक भी विकल्प नहीं होता-कोई भी बाह्य परिस्थिति उसके समता-रूप परिणामों में विकार नहीं लाती, जैसा कि कवि ने कहा है : "अरि मित्र महल मसान कंचन काच निंदन थुतिकरण। अर्घावतारन असि-प्रहारन में सदा समता धरन।।" अन्तर्मुहूर्त के भीतर एक बार निज-स्वभाव का स्वाद ले ही लेता है—निजस्वभाव की सम्हाल कर लेता है। स्वभाव से छूटता है तो अध्ययन-चितवन में लग जाता है, पुनः निज-स्वभाव में लग जाता है। ध्यान बिना क्षणमात्र भी नहीं गंवाता। जिस प्रकार गाय अपने बछड़े को देख-देख कर तृप्त नहीं होती, गाय के हृदय में निरन्तर बछड़ा ही बसता है, उसी प्रकार शुद्धोपयोगी मुनि अपने स्वरूप को क्षणमात्र भी विस्मरण नहीं करते, बस अपने ज्ञान-समुद्र में डूबे रहना चाहते हैं; संसार के कोलाहल से हटकर अपने चैतन्य-देव का सेवन करते हैं; सबकी शरण छोड़कर निज चैतन्य परमदेव की शरण को प्राप्त हुए हैं, मानो संसार-रूपी ग्रीष्म ऋतु से तृषित होकर निजात्मरस ही गट-गट पी रहे हों। इस प्रकार से आत्म-मग्न मुनि के बारे में ही आचार्यों ने
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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