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________________ बाकी को ही अपनी पूँजी नहीं मान लेता, बल्कि दूसरों का जो रुपया-पैसा अन्य किसी प्रयोजन से इसके पास आया हुआ है, उसको बाद देकर जो शेष/बैलेंस बचता है, उसे ही यह अपनी पूँजी समझता है। इसी प्रकार, स्वानुभव का साधक भी उपर्युक्त उन शरीरादिक समस्त पर-संयोगों को बाद देकर जो ज्ञान-दर्शन का पिण्ड मात्र बचा उसी में अपनापना स्थापित करता है; निर्णय करता है कि जो शरीरादिक पर-संयोग हैं वे अपने साथ होते हुए भी अपने नहीं हैं। यहाँ तक तो हुई कागजी कार्यवाही अथवा बुद्धि के स्तर का निर्णय। पुनश्च, जिस प्रकार वह व्यापारी उस बैलेंस का तिजोरी में रखी हुई शेष धन-राशि से मिलान करता है और उसको ही अपनी पूँजी मानता है, बाकी को नहीं। उसी प्रकार, साधक भी अपने ज्ञान में समस्त पर-संयोगों का निषेध करके, इन्द्रियों के द्वारा अपना जो ज्ञान-उपयोग बाहर जा रहा है उसे वहाँ से हटा कर अपनी आत्म-शक्ति को शरीर-इन्द्रिय-विचार-विकल्पों से हटा कर-उसको ज्ञान के अखण्ड-पिण्ड की ओर उन्मुख करता है, उसके साथ अभेद-एकत्व स्थापित करता है-अपनी सत्ता को मात्र अपने अस्तित्व में अनुभव करता है। अथवा, दूसरे शब्दों में, अपने ज्ञान की पर्याय में अपने चैतन्य-स्वभाव को ज्ञेय बना कर उसे अपने-रूप देखता है। यही स्वानुभव, आत्म-अनुभव, आत्म-दर्शन अथवा निजसत्तावलोकन है। निचली भूमिका में स्थित साधक के आत्म-अनुभव के दौरान स्वभाव का स्पर्श मात्र ही हो पाता है। परन्तु, स्पर्श होते ही जो बात बनती है वह हमारी पकड़ में आती है-सब जगत मिट जाता है, शरीर भूल जाता है, मन भूल जाता है, किन्तु फिर भी चैतन्य का दीपक भीतर जलता रहता है। शरीर आपको सामने पड़ा हुआ अलग दिखाई देगा। अभ्यासी साधक के कभी-कभी ऐसा अनुभव अपने प्रयास के बिना भी घटित हो जाता है, अचानक हम शरीर से अलग हो जाते हैं-शरीर अलग दिखाई देने लगता है। न कोई विकल्प रह जाता है, न कोई चिन्ता। ऐसा लगता है कि अब यह चेतना शरीर से अलग ही रहेगी। ऐसी घटना समाप्त होने पर भी दिन भर उसका असर बना रहता है। ऐसी विरक्ति बनती है जैसी पहले कभी नहीं हुई। फिर शरीर का जन्म इसका जन्म नहीं रहता, और न शरीर की मृत्यु इसकी मृत्यु रह जाती है; मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है। इसने मृत्यु को प्रत्यक्ष (३७)
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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