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________________ पुत्रादिक परिजन, कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र आदि ये सब मेरे हैं, ये ही मैं हूँ। इनके अभाव में अपना अभाव व इनके होने में अपना होना मानता है। फल यह होता है कि इन पदार्थों से सम्बन्धित हजारों प्रकार के विकल्प और आकुलताएँ, यहाँ तक कि नाना प्रकार की संभावित परिस्थितियों से संबंधित आकुलताएँ भी, उठ खड़ी होती हैं, और इन विकल्पों-आकुलताओं में फंसकर यह जीव दुखी होता रहता है। कदाचित् कोई एक आकुलता कुछ समय के लिए मिटती भी है तो अन्य हजारों उस समय भी मौजूद रहती हैं। और जो मिटी है वह भी कुछ समय बाद फिर आ जाती है, संभावना तो यद्यपि वहाँ सबकी ही पड़ी हुई है। एक-दो आकुलताएँ कम होने से यह जीव स्वयं को सुखी मान लेता है, परन्तु वास्तविक सुख यहाँ नहीं है। जिसे यह सुख मान लेता है वह सुखाभास के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। और जब यह शरीर के स्तर पर न होकर चेतना के स्तर पर खड़ा होता है, स्वयं को चैतन्य-रूप देखता है तो इसके आकुलता पैदा होने का कोई कारण ही नहीं रह जाता। आत्मा के स्तर पर न कोई रोग है और न किसी का मरण, न कुछ आना है और न कुछ जाना है; जो अपना है वह हमेशा अपना है, जो पर है वह हमेशा पर है। ऐसा अनुभव आने पर सभी प्रकार की आकुलताएँ और विकल्प करने का कारण समाप्त हो जाता है। इसीलिए आचार्यों ने बतलाया कि हे जीव ! तू स्वयं को शरीर-रूप-जैसा तू नहीं है-न देखकर चेतनारूप देख. जैसा कि त अनादिकाल से है और सदाकाल बना रहेगा। स्वयं को चैतन्यरूप देखना ही तेरी ज्ञानशक्ति को बढ़ाकर पूर्ण कर देगा और रागद्वेषजनित विकल्पों को हटाकर तुझे शुद्ध कर देगा। ऐसा तू वर्तमान में कर सकता है; यह तेरा अपना चुनाव है कि चाहे स्वयं को तू शरीर-रूप देखे, चाहे चैतन्य-रूप। शरीर-रूप देखने का फल तो चौरासी लाख योनियों में अनादिकाल से तू निरंतर भोगता आ रहा है। जिन्होंने स्वयं को चैतन्यरूप देखा वे परम आनन्द को प्राप्त हो गये। यदि तुझे भी वैसा आनन्द प्राप्त करना है तो तू भी स्वयं को चैतन्यरूप देख और उसी रूप ठहर जा। कहीं बाहर नहीं जाना है, मात्र शरीर के स्तर से चैतन्य के स्तर पर चले आना है। जिस प्रकार शरीर के स्तर पर तू जिनको पड़ौसी समझता है उनके प्रति तुझमें अपनेपने का राग नहीं होता, उसी प्रकार चैतन्य के स्तर पर आते ही स्त्री-पुत्रादिक, धन-सम्पत्ति आदि और शरीर, ये सभी पड़ौसियों के समान ही (३०)
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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