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________________ वृद्धि की ओर अग्रसर हो। जाननशक्ति और राग-द्वेषादि विकार, इनका परस्पर में उल्टा सम्बन्ध है-जब विकार बढ़ते हैं तो सम्यक् ज्ञानशक्ति घटती जाती है, और जब सम्यक् ज्ञानशक्ति बढ़ती है तो विकार घटते जाते हैं। अतः ज्ञानशक्ति को स्वभाव में लगाने पर उसका विकास और विकारों का झस एक साथ होता है। इस प्रकार जब विकारों का सर्वथा. अभाव घटित होता है तब विकसित होती हुई ज्ञानशक्ति पूर्णता के सन्मुख होती है। अत: कषाय का अभाव और ज्ञानशक्ति की पूर्णता ही साक्षात् धर्म है। अभी हमारी ज्ञानशक्ति पर में लगी हुई है, बाहर की ओर केन्द्रित है; उसको वहाँ से हटाना है। परन्तु यदि इतनी ही बात कही या समझी जाती है तो यह पूरी बात नहीं है, क्योंकि हटाने से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि उसे कहाँ लगाना है। बाहर से हटाकर यदि सही जगह नहीं लगाया, निजस्वभाव में नहीं लगाया तो धर्म की सम्भावना नहीं हो सकती। अज्ञानी जाननशक्ति को पर से यदि हटाता भी है तो भीतर किस ओर लगाए, यह नहीं जानता। ज्यादा से ज्यादा अशुभ से हटाकर शुभ में लगा लेता है, परन्तु वह भी पर ही है। अन्धकार को दूर करने का जो उपदेश दिया जाता है उसका अभिप्राय अन्धकार को भगाने का नहीं बल्कि प्रकाश को लाने का होता है। अन्धकार को दूर करने का मतलब ही प्रकाश को लाना है। प्रकाश लाया जायेगा तो अन्धकार स्वत: दूर हो जायेगा। जो व्यक्ति इस प्रकार सही अर्थ को नहीं समझता उसके सम्भवतः उपदेश-ग्रहण की पात्रता नहीं है। जब इसे रत्नों की पहचान होगी और फलत: उनके ग्रहण की रुचि होगी तो फिर यह नहीं पूछेगा कि जो पत्थर मेरे पास पड़े हैं उनका मैं क्या करूँ। परन्तु, वे पत्थर कहाँ छूट गये इसका इसे पता भी नहीं चलेगा। यही बात वर्तमान संदर्भ में है-यदि इस जीव से संसार-शरीर-भोग छुड़ाने हैं तो इसको अर्थहीन, परिवर्तनशील, नाशवान वस्तुओं से विपरीत लक्षण वाले इस सार्थक, अपरिवर्तनीय, शाश्वत निज स्वभाव की पहचान करानी होगी, सूचित करना होगा कि यह तुझको मिला हुआ ही है, कि यही वह स्थल है जहाँ पूर्ण शान्ति और आनन्द है। और, यदि इसको निज स्वभाव की पहचान हो गयी, श्रद्धा हो गयी तो यह जहाँ खड़ा है-संसार, शरीर, भोगों के बीच-वहाँ से स्वयमेव हट जायेगा। (२७)
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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