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________________ आत्म-अनुभव जरूरी है. बाकी सब मजबूरी है आत्मा का राग-द्वेष से सम्बन्ध अर्थहीन परिवर्तनों से व्याप्त इस मनुष्य जीवन में यदि कोई सार्थक उपलब्धि सम्भव है तो वह है अपने चैतन्य - सामान्य का, अपने स्वभाव का अनुभव। वह अनुभव कैसे हो ? अनुभव कर पाने से पहले उस निज स्वभाव को बुद्धि के स्तर पर ठीक से, विस्तार से समझ लेना आवश्यक है । स्वभाव वह होता है जो वस्तु की अवस्था बदलने पर भी न बदले, हमेशा कायम रहे। जैसे चीनी का स्वभाव है मीठापना; चीनी को मिट्टी में मिला दें, पानी में घोल दें, गर्म कर दें, परन्तु उसका मीठापना बराबर कायम रहेगा। इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव है जाननपना । यद्यपि ज्ञान कम-ज्यादा होता रहता है, तथापि जाननपना हर हालत में कायम रहता है। यदि ज्ञातापना जीव का स्वभाव है तो राग-द्वेष का उससे क्या संबंध है; क्या राग-द्वेष भी जीव के स्वभाव हैं ? इन प्रश्नों के समाधान के लिए एक दृष्टान्त पर विचार करते हैं। मान लीजिये कि एक बर्तन में आग पर चीनी रखी है और गर्म हो रही है । वहाँ पर चीनी में एक साथ दो बातें पाई जाती हैं, मीठापना और गर्मपना । मीठापना और गर्मपना एक साथ होते हुए भी मीठापना तो चीनी का अपना है जबकि गर्मपना अग्नि के सम्बन्ध से आया है । यद्यपि गर्म तो चीनी ही हुई है, तथापि गर्मपना चीनी का अपना नहीं, अग्नि का है। और फिर, गर्मपने के अभाव में चीनी का अभाव भी नहीं होता। अतः गर्मपना चीनी का स्वभाव नहीं हो सकता - गर्मपना चीनी के अस्तित्व से अलग है। बर्तन भी चीनी के अस्तित्व से अलग है। चीनी का अस्तित्व मात्र मीठेपने में है, जिसके होने पर चीनी का होना है, और जिसके अभाव में चीनी का अभाव है । अब दृष्टान्त को दान्त में घटाते हैं - यहाँ चीनी के मीठेपने की जगह तो जीव का ज्ञाता स्वभाव है, गर्मपने की जगह जीव के राग-द्वेषादि भाव हैं, बर्तन की जगह शरीर है, और अग्नि के स्थान पर मोहकर्म है । दृष्टान्त की ( २३ )
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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