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________________ मालूम होती है। जीव जिस प्रकार के अच्छे-बुरे परिणाम करता है, उसके अनुसार ही उसके कर्म-सम्बन्ध होता है। और, कर्म के माध्यम से वैसा ही फल कालान्तर में उसको मिलता है। दोष कर्म का नहीं, हमारा ही है। कर्म तो मात्र एक माध्यम है। यह जीव जैसा बीज बोता है, वैसा ही फल इसको प्राप्त होता है। यद्यपि इस जीव की कर्म के संयोग से उपर्युक्त प्रकार की विभिन्न व विचित्र अवस्थाएं हो रही हैं, तथापि इसका मूल स्वभाव इन सब परिवर्तनोंविकारों से अछूता बना हुआ है। उस चैतन्य को, अपने मौलिक स्वभाव को हम कैसे पहचाने ? इसके लिए हमें वस्तुस्वरूप को तनिक गहराई से समझना होगा। वस्तु : सामान्य-विशेषात्मक प्रत्येक वस्तु, चाहे वह चेतन हो या अचेतन, सामान्यविशेषात्मक है। 'सामान्य' और 'विशेष' ये दोनों ही वस्तु के गुणधर्म हैं, अथवा कह सकते हैं कि : वस्तु सामान्य+विशेष। 'सामान्य' वस्तु की वह मौलिकता है जो कभी नहीं बदलती जबकि वस्तु की जिस समय जो अवस्था है वही उसका 'विशेष' है। वस्तु की अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। मान लीजिए कि सोने का एक मुकुट था, फिर उसको तुड़वा कर हार बनवा लिया गया, कालान्तर में हार को तुड़वा कर कंगन बनवा लिया गया—अवस्थाएँ तो बदलीं, परन्तु सोना सोनेरूप से कायम रहा। इस उदाहरण में मुकुट, हार, कंगन आदि तो विशेष हैं जबकि स्वर्णत्व सामान्य है। अवस्थाएँ तो नाशवान हैं परन्तु वस्तु की मौलिकता या वस्तुस्वभाव अविनाशी है, शाश्वत है, ध्रुव है। इसी प्रकार एक बालक किशोर-अवस्था को प्राप्त होता है, फिर कालक्रमानुसार किशोर से युवा, युवा से प्रौढ़, और प्रौढ़ से वृद्ध होता है। बालक, किशोर आदि अवस्थाएँ तो बदल रही हैं, परन्तु मनुष्य मनुष्यरूप से कायम है। अवस्थाओं या विशेषों के परिवर्तित होते हुए भी उन सब विशेषों में मनुष्यत्व-सामान्य ज्यों का त्यों है। यही बात पौद्गलिक वस्तुओं के सम्बन्ध में है-जैसे दूध को जमा कर (१३)
SR No.009559
Book TitleParmatma hone ka Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherDariyaganj Shastra Sabha
Publication Year1990
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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