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________________ पदार्थ विज्ञान यदि इस दोपको दूर करनेके लिए यह कहा जाये कि पूरे शरीर मे व्याप्त वह प्रकाश ही महसूस कर लेता है, तब पूछना यह है कि वह प्रकाश जड है कि चेतन । यदि वह जड है तो महसूम नही कर सकता, यदि चेतन है तो वह जीव पदार्थ हो हुआ । और इस प्रकार जीवको सारे शरीर मे व्याप्त स्वीकार कर लिया गया । ८० यदि इस दोषको दूर करनेके लिए यह कहा जाये कि प्रकाश तो ज्ञानरूप है, जीव- पदाथ रूप नही । जिस प्रकार आप अपने स्थानपर बैठे बैठे अपने ज्ञान द्वारा दूर-देशस्थ वस्तुको भी जान जाते हैं और उन्हे वहाँ-वहाँ रखी हुई ही जानते हैं, इसके लिए आपको फैलकर वहाँ जाना नही पडता, इसी प्रकार अपने स्थानपर बैठे बैठे ही अणुमात्र जीव अपने ज्ञान-प्रकाश द्वारा वहाँ-वहाँको पीडाका अनुभव कर लेता है, ओर वह वेदन उसे वहाँ वहाँ ही प्रतीत होता है जहाँ-जहाँ कि वह है । यह भी ठीक नही है : ज्ञान द्वारा जाननेका दृष्टान्त यहाँ लागू नही होता क्योकि जानने व महसूस करने मे बहुत अन्तर है । आप दूसरोको तडफता हुआ देखकर ज्ञान द्वारा महसूस नही कर सकते । महसूस तो अपने शरीरकी पोडा ही होती है । अत सिद्ध हुआ कि जीव अणुमात्र नही बल्कि असख्य-प्रदेशी है और छोटे व बडे शरीरोमे स्वय सिकुडकर, या फैलकर या व्याप कर रहता है । अन्य दर्शनकार उसे सर्व व्यापक ही मानते है । उनका कहना है कि अखण्डित नित्य तथा सत् पदार्थ दो ही हो सकते हैं - अणुरूप या सर्वव्यापक, जैसे कि परमाणु तथा आकाश । परन्तु उनका यह कहना भी कुछ अधिक विद्वत्तापूर्ण प्रतीत नही होता । मूल पदार्थ को अणु तथा सर्वव्यापक सिद्ध करनेके लिए अखण्डत्व, नित्यत्व तथा सत्त्वका हेतु देना दोषपूर्ण है, क्योकि ऐसा नियम नही देखा जाता। सभी जीव पृथक्-पृथक् अपने-अपने सकल्प-विकल्पोंके
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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