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________________ ५६ पदार्थ विज्ञान भी लागू कीजिए। शरीर व अन्त करण एक तभी माने जा सकते है यदि ये दोनो एक साथ रहते हो, एक क्षणको भी शरीर विना अन्तःकरणके न रहता हो। अब आप ही बताइये कि क्या यह सत्य है कि ये दोनो एक हैं । भैया । भले ही दूध-पानीवत् मिल-जुलकर एकमेक हो जानेके कारण ये वर्तमानमे तुझे एक सरीखे दीख रहे हो, अर्थात् शरीर ही चेतन दीख रहा हो, परन्तु इसकी पोल उस समय खुलती है जबकि मृत्युके समय वह ज्योति इसमेसे निकल जाती है जिसके बल-बूतेपर कि यह डीगे हाक रहा है। अब इससे पूछो कि भो शरीर । तू तो चेतन था न, अब आँख होते हुए भी तू क्यो नही देख सकता नाक व कान होते हुए भी तू क्यो नही सूघ व सुन सकता, जिह्वा होते हुए भी तू क्यो नही चख व बोल सकता, हाथ-पांव होते हुए भी तू क्यो नही इस पुस्तकको पकड तथा चलफिर सकता ? आखिर कहां चली गयो तेरी सर्व स्फुति ? कोई भी अग भग या खराब नही हुआ है, पहलेकी भांति ही सुगठित है, सारी इन्द्रियाँ भी तेरे पास हैं। आखिर किस बातकी कमी है जो कि तू अचेत है ? इसके पास इसका अब कोई उत्तर नहीं, इसका सर्व दर्प विदा हो चुका है, मानो चेतनकी सत्ताको आज यह स्वीकार कर रहा है। आज यह स्पष्ट कहता हुआ प्रतीत हो रहा है कि भो चेतन । मै बहुत लज्जित हूँ। आज तक सदा मैने तेरी अवहेलना की, परन्तु अब जान पाया कि तेरे तेजसे ही मै तेजवन्त था, तेरे प्रतापसे ही मैं प्रतापवन्त था। मैं समझता था कि आँख देखती है, परन्तु वास्तवमे आँखके पीछे बैठा तू ही देखता है। आँख तो केवल तेरे देखनेका साधन था, जैसे कि आंखके लिए चश्मा। जिस प्रकार चश्मा नही देखता, पर चश्मेके पीछे बैठी हुई आँख ही
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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